रघोत्तम शुक्ल, सेवानिवृत्त पीसीएस
सम्प्रति चीन का रवैया भारत के प्रति आक्रामक और शत्रुतापूर्ण है। उसकी प्रसारवादी नीति तो सदा से रही है।अंतर्राष्ट्रीय दक्षिण चीन सागर को वह अपना बताता है।ताइवान हड़पने की फिराक में है।नेपाल के रुई ग्राम पर कब्जा कर लिया है।भूटान के कुछ भाग को अपना बताने लगा है।मंगोलिया ने तो चीन की सरहदी घुसपैठ से त्रस्त हो दीवार खड़ी कर ली है।1962 में हमारा बड़ा भूभाग हड़प लिया है और अब अरुणाञ्चल और लद्दाख के एक भाग को अपना बताकर सैनिक हलचल तेज किये है।सैन्य झड़पें हुई हैं और युद्ध के बादल मडरा रहे हैं।
सामान्यतया युद्ध किसी समस्या का अंतिम विकल्प होता है।इसकी दुन्दुभी मोहक अवश्य होती है किन्तु विभीषिका बड़ी दुखद और कष्टदायक ही सिद्ध होती है।महाभारत से लेकर हीरोशिमा और नागासाकी बम वर्षण के परिणाम सबने देखे।टालस्टाय की ‘वार एण्ड पीस’ तथा अर्नेस्ट हेमिंग्वे की ‘फेयरवेल टु आर्म्स’जैसी कालजयी रचनाएॅ हमें यही संदेश दे रही हैं।राम ने भी पहले अंगद को दूत बनाकर रावण के पास संदेश ही भेजा था और उसके सद्बुद्धि न आने पर विनाशकारी संग्राम हुवा।महाभारत में श्रीकृष्ण द्वारा गीता का युद्धोपदेश देने से पहले वे कौरव सभा में स्वयं गये थे और धृतराष्ट्र व दुर्योधन को बहुत समझाया था।अंततः जब वह पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने को तैयार नहीं हुए और कृष्ण को भी बन्दी बनाने का दुःसाहस करने लगे,तो फिर रणभेरी बजी।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘सिद्धराज’में मदन वर्मा के मुख से शत्रु के लिये यही नीति कहलवाई है कि “यदि धन मागे एक कार्पटिक,दे दो कुछ धन उन्हें।यदि रन माॅगें तो वही सही।रंग से नहीं,रक्त से ही निज होली हो।’
शक्ति सम्पन्नता,बल सञ्चय और तैयारी भरपूर होनी चाहिये क्योंकि संधि वार्ताएं बराबर में ही हो पाती हैं।कमजोर होने पर तो दैन्य प्रदर्शन ही होता है।बरट्राण्ड रसेल ने कहा है कि “युद्ध के लिये तैयार रहना युद्ध रोकने का सबसे अच्छा उपाय है।”
हमारी नीति सदा रक्षात्मक रही है।प्रसारवाद की नहीं;किन्तु अपनी एक इञ्च भी भूमि नहीं दे सकते।हम अपनी रक्षा के लिये सक्षम हैं और वार्ताएॅ असफल होने पर रण हेतु उद्यत!
हिमगिरि से दक्षिण समुद्र तक सारी पावन भूमि हमारी।
अगर उठाई दृष्टि किसी ने तो हम देगे चोट करारी।।