फिर तेरी कहानी याद आई : दो साल पहले माता कामरूप कामाख्या के दर्शन के लिए की गई गुवाहाटी की वो तिलस्मी यात्रा और रोंगटे खड़े कर देने वाले वो रहस्यमय अनुभव…

विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार….

उस रात हम सोये ही नहीं। पूरी रात आंखों में कट चुकी थी। पत्नी के सेल फोन का चार बजे का अलार्म रोजमर्रा की मानिंद बांग देने लगा था। चूंकि मिसेज बबिता भारद्वाज ने हमें ताकीद किया था कि वो हमें सिक्स फिफ्टीन तक लेेने आ जाएंगी लिहाजा हमें जल्दी तैयार होना था। सो, हम एक दूसरे को आवाज देते हुए नहाने धोने की तैयार में लग गये। अनवरत बारिश के चलते गुवाहाटी का टेम्परेचर बाइस या तेइस पर उतर आया था। अचानक से पता चलने पर कि होटेल का सोलर गीजर काम नहीं कर रहा है, सब बेचैन हो उठे। समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ठंडे पानी से नहाया कैसे जाएगा। सबकी राय बनी कि जिसकी हिम्मत होगी वो नहायेगा वरना वजू से काम चलाया जाएगा। एक के बाद एक घुसता और नहा कर ही निकलता। आश्चर्य की हाथ धोते और ब्रश करते बेहद ठंडा लग रहे पानी की तासीर पीठ पर पडते वक्त बदल चुकी थी। जैसे शावर में किसी ने कोई दुआ पढ़ कार दम कर दिया हो। बहरहाल, साढे पांच या पौने छह बजे ही हम रेडी हो गये थे। अब हर लमहा बेचैनी बढती चली जा रही थी। मिसेज बबिता अपने बताये वक्त पर अपने हसबेंड के साथ आयीं और उन्होंने अपने मौसेरे भाई परितोष शर्मा को कॉल कर समझा दिया कि हमें जगद्जननी माता कामाख्या का विधिवत दर्शन पूजन करा दिया जाए। इसके बाद वो एक ओला कैब में हमें बैठा कर वापस लौट गयीं। और अब हम निकल पडे थे मां की जियारत के लिए। रवायत के मुताबिक हम सब निन्ने मुंह थे।

मतलब हममें से किसी ने कुछ भी खाया पीया नहीं था। ये सब हमें उस सुनहरी जुल्फों वाले ने अपनी पहली तवज्जे में ही बता दिया था कि कम खाना और कम सोना राहे इश्क की पहली शर्त है। जियारत पर जाने का इरादा बांधने के साथ ही उसके तसव्वुर की बात भी उन्होंने हमें जैसे घुट्टी में पिला दी थी। सो हम सब चुपचाप चले जा रहे थे। टैक्सी ड्राइवर भी हमें देख अचंभे में था की अजीब मनहूस सूरत वाले हैं जो आपस में भी बात नहीं कर रहे हैं। रास्ते में मेन रोड आने तक तो हम बाहोश थे। गुवाहाटी की दुकानों पर लगे बोर्ड पढते हुए असम की इकाॅनमी को बूझने का प्रयास करते रहे लेकिन पता नहीं कब वो रात वाला शख्स फिर आकर जलवागर हो उठा। हिना की तेज खुशबू के चलते कुछ सूझ ही नहीं रहा था। तभी चलती टैक्सी में फिर हमें उसकी आवाज सुनायी देने लगी। कहने लगे, इश्क के लिए दर्द बहुत जरूरी है। दर्द के बगैर इश्क और इश्क के बगैर दर्द हासिल नहीं हो पाता। कहने लगे, यार अब माता पार्वती को देखो। उन्हें अपने महबूब शिव से बेपनाह मोहब्बत थी। उन्हें नजरअंदाज किया जाना माता पार्वती को दर्द दे गया। उन्हे ये सब इस कदर नागवार गुजरा कि वो जलाल के उस मुकाम पर पहुंच गयीं कि खुद को उस अग्निकुंड में समाहित कर लिया जिसे उनके पिता राजा दक्ष ने तमाम शक्तियों को पाने के लिए प्रज्ज्वलित किया था। उनके इस जलाल ने भोलेनाथ कहे जाने वाले शिव के जमाल में भी ताप की अग्नि सुलगा दी। वो अपनी उस तीसरी आंख को खोल बैठे जो कयामत का सबब था।

अब जरा माता पार्वती के दर्द को समझो कि बाप ने अपने अनुष्ठान में दुनिया जहान को न्यौता पर अपनी उस बेटी को ही नहीं बुलाया जो पराशक्ति की पर्याय है। राजा दक्ष की अज्ञानता को देखो कि वो बेशक शक्ति की आराध्य की पैदाइश के सबब थे पर वो अपनी बेटी की ताकत को पहचान ही नही सके। सुनहरे लम्बे बाल वाला वो शख्स लगातार बोले चले जा रहा था। उस पराशक्ति का मुकद्दर भी देखो कि पति के कंधे पर लदे उसके पार्थिव देह के प्रबल ताप को फरिश्ते भी बर्दाश्त नहीं कर सके। गैब को जब कुछ नहीं सूझा तो उसने उस शख्सियत से उसका सुदर्शन चक्र चलावाया जिस पर इस सृष्टि के पालन की जिम्मेदारी थी। अब जरा उस देवी के दर्द को महसूस करो जो इश्क की पर्याय थी। प्रेम की प्रतीक थी। इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड की मां पार्वती थी। उसका पार्थिव देह अपने उस महबूब शिव के कंधे पर लदा था जिसके सिर्फ एक बार पलक झपका देने पर न जाने कितने कायनात बनते और मिट जाते हैं पर जरा उसकी तकलीफ को देखो कि उसके अंग प्रत्यंग कट कट कर जगह जगह गिरते जा रहे थे और तमाम फरिश्ते ये सारा तमाशा देख रहे थे ? उफ, कितना अफसोसनाक रहा होगा वो मंजर कि हमारी मां के देह का इक्यावन टुकडा कर दिया गया।

दोस्त, यही फना है। अब फना के बाद बका को समझो। उस निष्प्राण शरीर के प्रबल ओज को देखो कि हर शेष अवशेष ने इक्यावन शक्ति पीठ का रूप धारण कर लिया। बका भी ऐसी कि कयामत के बाद भी इन शक्तिपीठों का वजूद इस ब्रह्मांड में कायम रहेगा। सुनो, मां कामाख्या इन शक्ति पीठों की सिरमौर हैं। तुमने श्रीचक्र को देखा होगा। उसके शिखर की बिन्दु ही माता कामाख्या हैं। पहाडी रास्ते पर खाये एक हिचकोले से मेरी तन्द्रा टूट गयी। ड्राइवर ने बताया कि नील पर्वत की घाटी है। ये माता कामाख्या की दहलीज है। उसे क्या पता कि हिना की खुशबू बिखेर रहा वो जलावागर मुझे रास्ते भर यही सारी दास्तां तो सुना रहा था। रास्ते में पहाडी चट्टानों पर लिखी इबारत मां के चमत्कार को महसूस करने का संदेश दे रहा थी। फील द मिरेकल, फील द गाॅडेस और भी न जाने क्या क्या। यह सब वाकई महसूस हो रहा था कि यहां कोई तो एक ताकत है जो अपनी तरफ लगातार खींच रही है। वो कह रही है कि हां, मैं ही हूं इस सृष्टि की जननी। इस नश्वर संसार में पैदा होने वाला हर शख्स मेरा ही अंश है।

 

 

टैक्सी वाला हमें बस स्टैंड पर छोड कर जा चुका था। हम पंडित परितोष शर्मा को काॅल कर उनसे बतियाते हुए माता के परिसर में दाखिल हो चुके थे। हम हैरान थे कि हम ठीक उन्ही सबसे मुखातिब थे जिन्हें हमने ख्वाब में देखा था। परितोष जी के अलावा तमाम लोग लाल रंग की पोशाक में थे। जाहिर है कि वो सब मां कामख्या दरबार के पंडे हैं। उनके चेहरे पर एक अलग तरह का तेज था। उसकी वजह वो नूर है जिसका वो हर रोज दीदार करते हैं। सब बेहद विनम्र और खामोश। अचानक से दिखने लगे वही कबूतर और बकरी के नन्हे बच्चे। सबके देह पर लगी लाल रंग की रोरी। जैसे वो रोरी नहीं इस दरबार का बिल्ला लगाये घूम रहे हों। अरे हां, इनके बीच यहां कुछ बिल्ली और बिल्ले भी घूम रहे हैं। पर किसी को किसी की परवाह ही नहीं हैं। बिल्लियों का कबूतर के साथ यूं टहलना कुछ अजीब सा लगा। तभी मेरे रोंगटे खडे हो गये। रात उनकी कही बात याद आ गयी। यहां दिखने वाली हर सूरत को उसकी हकीकत मत समझना। कबूतर और बकरी की शक्ल के अलावा आसपास दिखने लगे तमाम चेहरों में भी अब मुझे डाकिनी शाकिनी नजर आने लगे। इस बीच परितोष शर्मा हमें मंदिर परिसर में स्थित एक कुंड में ले जाकर हमारा शुद्धिकरण करा रहे थे। जल प्रक्षालन के साथ शर्मा जी असमी टोन में अपना मंत्र पढ रहे थे और हम ओम अपवित्र पवित्रो वा सर्वा वस्थांग गतो पिवा की अपनी दोआ में लगे थे। उसके बाद वो हमें वीआईपी दर्शन की कतार में खडा कर पूजन सामग्री के इंतजाम में लग गये। एक दो फाटक पार कर थोडी ही
देर में हम उस चौखट में दाखिल हो चुके थे जहां पहुंचने के साथ सब कुछ निस्तेज हो जाता है। पंडित परितोष शर्मा आगे आगे चल रहे थे और हम सब अपना वजूद खोये उनके पीछे कुछ ऐसे चल रहे थे जैसे वो हम नहीं हमारा देह पिंड चल रहा हो।

हजारों साल पहले का बना वो मंदिर बेशक पत्थर का था पर यह बताते हुए मेरी रूह कांप रही है कि यहां के हर शिलाखंड में जान प्राण है। वो बकायदे मुस्कराती हैं। आने वाले हर शख्स का इस्तकबाल करती हैं। सबकी गुहार पुकार सुनती हैं। जिसकी जितनी समाई है उतनी उसे अता करने के लिए मां कामरूप कामाख्या से पैरवी भी करती हैं। इन प्राणवान दीवारों पर विग्रह बन कर टंगे तमाम देव प्रतिमाओं का दीदार करते हुए अब हम गर्भगृह में दाखिल हो चुके हैं। हमारे पुरोहित शर्मा जी बता रहे हैं कि ये मां कामरूप कामाख्या का मुख्य विग्रह है। ऊपर रखी मूर्ति के नीचे मुख्य पिण्डुकी है। उन्होंने कुछ फूल हमारे हाथों में थमाये और पुष्पाजंलि पढना शुरु किया तो हमें सिंहरन होने लगी। ओम नमो भगवते… चामुंडे… नील पर्वत वासीनी… मां कामख्या… नमस्तुते… हमें वो सब याद आने लगा जिसे हमने ख्वाब में देखा था। फिर वही अंधेरी गुफा जैसी जगह में हाथ थाम कर उतरना… फिर वही संकल्प के साथ पुष्पाजंलि ओम नमो भगवते… चामुंडे… नील पर्वत वासीनी… योनी मुद्रा… मां कामख्या… नमस्तुते…

इन सबके बीच हाथ में रखे फूल मां के देह अंश पर कब समर्पित हो गये पता ही नहीं चला लेकिन प्रस्थर अवशेष का स्पर्श मन मस्तिष्क में वीतराग का भाव भर गया। यहां भी वो कान में फुसफुसा रहा था। नहीं… नहीं… वो जैसे हुक्म दे रहा था। रख यहीं अपना सिर सजदे में। मांग अपने गुनाहों से माफी। अर्ज कर इस समस्त संसार के लिए रहम और करम। सबका भला, सबकी खैर की दुआ कर। यकीन कर की तू मां का नेक बंदा है। उसका प्यारा बच्चा है। शुक्राना अदा कर की उसने तुम्हे इस चौखट में दाखिल होने की इजाजत अता फरमायी। क्योंकि हर रोज हजारों की तादाद में आने वाले बंदों में से वो कुछ को ही दाखिले की रहम अता फरमाती हैं। वो हम सबकी मां ही नहीं हम सबकी रब हैं। उनसे अपने लिए श्रद्धा और भक्ति मांग। उन पर यकदा और यकीन मांग। उस यकीन पर कायम रहने की ताकत मांग। और मांग ले उस फकीरी को जिसके दम पर तू दुनिया जहान के लिए ताजिंदगी, ताकयामत दुआगो रहे। वो लगातार बोले चला जा रहा था और सजदे में गिरा मैं सिर्फ आमीन, आमीन और आमीन कहे चला जा रहा था। मैं कब तक वहां इसी हाल में रहा पता ही नहीं चला। योनी मुद्रा कुंड के पवित्र जल प्रक्षालन से चैतन्यता तो आयी पर मेरा पूरा वजूद उस कुंड में डूब कर पूरी तरह से खत्म हो चुका था। बगल में माता महालक्ष्मी और महा सरस्वती की पिण्डुकी पर पुष्प अर्पित कर हम बगैर पीठ दिखाये बाहर निकल तो रहे थे पर हमारा बहुत कुछ वहीं छूट चुका था। बाहर आने पर परितोष जी ने घूमा देवी, भैरवी, शीतला, तारा, काली, छिन्नमस्ता,  भुवनेश्वरी और बगुलामुखी देवी के मंदिरों को जाने का रास्ता बता दिया। हम हर एक मंदिर में मत्था टेकते हुए सिर्फ वही दुआ मांगते रहे जिसके लिए हमें हुक्म मिला था। इन सारे मंदिरों के अपने तिलिस्म थे और थे अपने अलौकिक अनुभव।

इन सबके बाद अब हम मां कामाख्या की प्रदक्षिणा कर रहे थे। मन कुछ अलग तरह के भाव से भरा हुआ था। हमने अगरबत्तियां सुलगायीं थीं पर हमारे हाथों में गमक किसी और की थी। साथ में कोई तो था जो अपनी लगातार मौजूदगी दर्ज करा रहा था। वो हमसे मंदिर के तवाफ के लिए कह रहा था। बार बार कही अपनी इस बात पर कायम था कि इस कायनात के प्रथम पुरूष और स्त्री भगवान शिव और माता पार्वती ही थे। उनके युग्म से ही इस संसार में मनुष्य मात्र का जन्म हुआ है। वो हमें राहे इश्क में इस आशिक और महबूब के जोडे की दी हुई कुर्बानियों की याद दिला रहा था। तभी वापस लौटते हुए मेरे कदम माता के दरबार की चौखट पर आकर जड हो गये। सजदे में गिरी देह के साथ जेहन एक बार फिर दूर कहीं गहरे तक डूब चुका था। वो मां से कुछ अर्ज कर रहा था तो कुछ याचना कर रहा था। इसमें कुछ इसरार भी था तो कुछ इकरार भी था। उसका कहना था कि क्या कहेगा ये जहां आपके दर से खाली हम अगर जाएंगे ? अर्ज का ये सिलसिला चल ही रहा था कि आवाज आयी, उठो, मां अपने बच्चों को हताश कभी देख ही नहीं सकती। जाओ उसने तुम्हारी बात सुन ली है। हमारे उठे हुए कदम चल तो रहे थे पर हमारा बहुत कुछ वहीं धरा रह गया था।

(अगले अंक में – दूसरी हाजिरी का वो रहस्यमय इंतजाम और बगुलामुखी…)

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