शरद दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार….
बटेसर साइकिल पर बैठने लगा.. आम लोगों से हटकर उसकी सवारी होती थी..पहले शुतुरमुर्ग के अंडे जैसे दो अंडकोष हाथों से ऊपर चढ़ाओ फिर पीछे तशरीफ को सीट पर रखो..अंडकोष चढ़ाते कभी कभी विचारों में सुनामी सी आ जाती है. वजह थी पूनम.. दुनिया की हंसी उतनी नहीं खली जितना सूजे हुए फोतों पर नजर पड़ने पर फूटा उसका हंसी का फव्वारा..जब से अंडकोषों का पेट निकल आया, गांव डगर के लोगों का रियेक्शन देख बटेसर की हिम्मत न होती थी पूनम के घर जाने की.. वैसे रमपतिया की किचकिच के बीच दिल बहलाने के लिए वो हफ्ता-खाड़ में पूनम से मिलने चला जाता था.. सुरैंचा पर नरपत की दुकान से जलेबी लेकर..पूनम के घर में घुसता तो उसकी सास और अपनी दूर चाची से मिलने का बहाना लेकर लेकिन थोड़ी देर में उनको टरकाकर पूनम से हंसी ठठ्ठा करता.. जलेबी रिश्वत के तौर पर घर में बंटती..भोली-भाली चाची इसे बटेसर का अपनत्व ही समझतीं.. ये एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन केवल भावनाओं के स्तर पर था…
पूनम बटेसर के गांव कोकनामऊ की ही थी.. दोनों लगभग एक ही उम्र के थे.. साथ साथ खेले.. खूब लड़ते थे.. मगर जी भी एक दूसरे के बगैर नहीं लगता.. पहले तो जब तक समझ नहीं थी ये रिश्ता दोस्ती का था.. लेकिन बटेसर के मूछों की रेख निकलनी शुरू हुई तो दोस्ती खत्म हो गयी और प्यार जैसा कुछ होने लगा..प्यार एकतरफा था.. बटेसर पूनम को लेकर सीरियस हो गया.. पता नहीं कब से शुरू हुआ.. पूनम को हमेशा आंखों के सामने चाहता था.. उसे पूनम से इस बात की दरकार थी कि वो भी उसकी चिंता करे.. उसका ख्याल रखे.. पर ऐसा दिखता न था.. पूनम प्रत्यक्षतः पहले जैसा व्यवहार करती थी.. जबकि बटेसर पूनम को लेकर मोम हुआ जा रहा था..बटेसर 16 साल का हो गया था.. उसकी मनोदशा बदल रही थी..शिक्षाविद् और मनोवैज्ञानिकों ने जैसा किताबों में लिखा हैं.. उसके हिसाब से वो उम्र के सबसे खतरनाक मोड़ पर था.. खून में गरमी और बहाव दोनों चरम पर था.. भूरे, सनातन, लल्ला, परकास के साथ चठिया लगाता..फुर्तीला शरीर, बातचीत में फरवट..
पूनम की सहेली थी शन्नो.. बटेसर का पूनम के लिए लगाव उसे साफ दिखता था.. सच बात तो ये थी कि उसको पूनम से जलन होती.. वो भी गबरू बटेसर पर फिदा थी.. शन्नो भी कम आकर्षक न थी.. गांवों में कहां रोज लाली लिपस्टिक.. बर्तन मांजों.. कपड़े धोओ.. गैय्या गोरू को सानी करो.. गोबर उठाओ.. खाना बनाओ.. जाने कितने लड़कियों पर थोप दिये जाते हैं.. किशोरवय का असर रहता है तो बीच बीच में लड़कियां शीशा देखकर बाल काढ़ लेती हैं..फुलवारी से मेहंदी तोड़कर हाथों में रचा लेती हैं.. कभी मौका मिला तो नेलपालिश भी लगा लेती हैं.. नेचुरल, हन्ड्रेड पर्सेंट हर्बल ब्यूटी मिलती है गांवों में..शन्नो भी ब्यूटीफुल थी.. तीखे नैन नक्श.. परकास, भूरे तो लट्टू थे उस पर.. और तो और बाजार में उसे हरदीपुरवा के लखन ने क्या देख लिया, ससुरा बावला हो गया था.. रोज कोकनामऊ शन्नो को देखने आ जाता.. वहां उसकी बुआ रहती थीं.. रो-बैन का काला चश्मा लगाये..सफेद जूते, सफेद शर्ट, सफेद पैंट, सफेद बेल्ट और चाइनीज लेडीज परफ्यूम..लेडीज जेंट्स का उसे पता नहीं.. बस बाजार जाकर परफ्यूम मांगा.. दुकानदार का एक्सपायरी माल पड़ा था.. टिका दिया.. चूने जैसी सफेद वेशभूषा धारण करके सेंट लगाये लखन बुआ की छत से शन्नो को देखता.. बार बार बालों पर हाथ फेरता.. जोर जोर से बुआ के पोते का नाम लेकर पुकारता ताकि शन्नो का ध्यान उसकी तरफ जाये.. शन्नो भी कम न थी.. सब देखती समझती लेकिन उसे कोई आकर्षण न था.. हां, दो चार लटके रहें, ऐसी उसकी इच्छा थी.. जो पूरी हो रही थी..
सही बात तो ये है कि वो बटेसर पर फिदा थी.. बटेसर पूनम पर.. पूनम बटेसर को लेकर बेपरवाह.. शन्नो पूनम को कई बार कह चुकी.. बटेसर तुमरे बदै मरा जाय रहा.. तुमहू तनुक पियार तेने बोलि दिया करौ..पूनम हंसी में उसकी बात उड़ा देती..पहिले तुम हरदीपुरवा केरे राजकुमार क्यार ख्याल रखा करौ.. राजकुमारी.. शन्नो कहती.. खयाल.. थूथून कूचि द्आब वहिका.. फिर दोनों हंस पड़ती.. भूरे, परकास शन्नो पर मरते थे लेकिन पूनम के बारे में कुछ न बोलते.. जानते थे बटेसर की जान पूनम में है.. अगर कुछ बोला तो दोस्ती गयी.. मारपीट होगी वो अलग से.. एक बार चुहलबाज परकास बस कह ही दिया था.. अबे..जिंदगी भर खाली घंटा बजाय क पूनमिया क आरती करेव? सारे लै जाओ वहिका अर्री (अरहर) के खेत मा.. सुनते ही बटेसर का पारा चढ़ गया.. उंगली उठाकर शब्दों को चबा चबा कर बोला..देख रे परकसवा.. जबानू खैंचि ल्याब जो दोबारा अइस बात करेव.. भूरे और परकास दोनों सन्न रह गये.. गांव की निरमला और पुनईया के अरहर के खेत के किस्से तो खूब रस लेकर सुनता है..जरा सा पूनम के लिए कह दिया.. दोस्ती भूल मरने मारने पर उतारू है..तब से वो पूनम को लेकर कोई मज़ाक नहीं करते..
दरअसल निरमला और कन्हई अरहर के खेतों का भरपूर इस्तेमाल करते थे..हालांकि ये बात दीगर थी कि खेत के मालिकों को इस्तेमाल के बदले धेला नहीं देते थे . ये ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुफ़्त वाला पहलू है.. कुछ चीजें गांवों में मुफ़्त में मिल जाती हैं.. घर में सब्जी न हो तो चौलाई का साग खोट लाओ.. महुआ के पेड़ से कोल्हैया तोड़ लाओ..तालाब में कमलघट्टा बीन लाओ.. मौसम हो तो धरती के फूल खोट लो..ऐसे ही कहीं व्यवस्था न बने तो अरहर के खेत में चले जाओ.. शहरों में कुछ होटल इसी के लिए बने होते हैं उनके कमरे होंगे तो लल्लूराम धर्मशाला से भी बदत्तर लेकिन घंटों का किराया वन स्टार होटल से भी ज्यादा.. लेकिन हम अर्थशास्त्र नहीं पढ़ रहे, बात निरमला और कन्हई द्वारा अरहर के खेतों के सदुपयोग की हो रही है..भूरे, परकास, सनातन, लल्ला जब चठिया लगाते तो निरमला कन्हई पर बतखांव जरूर होता.. एक बार चठिया में परकास ने कहा..निरमलिया बज्जर बेशरम हय.. भूरे ने बात काटी.. अबे गदहू.. यहिमा नई बात का हैय.. गांव भर जानति मुल वहिके कोई फरक नाय परत.. याक बात बताई.. यू कन्हई कोई दिन मारि डारा जाई.. निरमला क बाप कम बदमाश नाय हय.. भूरे बोला.. आज हम दुईनो कहियां दीना केरे अर्री के ख्यातन तेने निकरत देखेन.. हमका दुईनो जन देखि लिहिन.. कन्हई फिर खेत म भागि गा.. निरमलिया नाय लुक्की(छिपी).. हमरे सामने तेने निकरि गयी.. बज्जर बेशरम हैय..