विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार..

अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह हो या दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन का आस्ताना, या फिर पीराने पीर कलियर वाले हजरत साबिर पिया की चौखट। इन सब जगहों पर अक्सर कव्वाली का एक शेर कानों में पड़ता है। अनोखी तुमरी लीला है, कोई क्या जाने कि तुम क्या हो… जाहिर है ये शेर इबादत और आशिकी में अपने इष्ट के लिए कही गयी लेकिन ये शेर अपने शहर काशी के साथ बिल्कुल मौजूं जान पड़ता है। यह अलग बात है कि इस शेर की अगली कड़ी कुछ और है लेकिन अगर यह काशी के संदर्भ में होता तो यकीनन यही होता कि तुम ही जानो कि तुम क्या हो। हजारों साल पुराना यह शहर आज भी एक अबूझ पहेली बना हुआ है। अजब रहस्य समेटे है अपनी काशी। गजब तिलिस्म है इसका। यकीन मानिए काशी पर कोई राय कायम करना नामुमकिन है। उस पर कोई टिप्पणी करना असंभव है। अजब रंग है इस सरजमीं का। पूरी जिंदगी यहां गुजार देने के बाद भी आप ये तय नहीं कर पाएंगे कि काशी कोई शहर है या कोई शख्स। अजीब ऐंठ में जीते यहां के लोग। उनकी ठसक। उनका तौर तरीका। उनकी अपनी रवायत। उनकी अपनी तहजीब और अपनी संस्कृति। जैसे वो किसी आम इन्सान की तरह जन्में नहीं बल्कि अवतरित हुए हों। काशी को तलाशना या उसको समझना अपने आप में रहस्यमय है। एक ऐसा तिलिस्म जिसके परत दर परत में इतनी माया है कि उसमें खोया शख्स काशी के रहस्य के साथ इश्क करने लगता है। वह इस शहर के साथ इस आशिकी में जीने लगता है कि काशी को जीने का रोमांच अनंत काल तक चलता रहे। काशी के तलाश की उसकी यह यात्रा कभी खत्म ही ना हो। किसी शेर का एक ऐसा ही कुछ मिसरा है भी… तलाश-ए-तलब में वो लज्जत मिली है कि दुआ कर रहा हूं कि मंजिल न आए…

काशी के साथ एक बड़ी खासियत है। यहां का बाशिंदा अपनी मिट्टी छोड़ कर जी नहीं पाता। वह अपनी गंगा मैया के तीरे को जन्नत मानता है। उसे अपने शहर की तंग गलियां भाती है। बेशक गलियों में बेशुमार गंदगी है पर उसे इससे परहेज नहीं है। यहां तमाम भौतिक सुखों का घोर अभाव है पर काशी के बंदे को उन सुखों की परवाह ही नहीं है। अव्वल तो यहां के लोग काशी छोड़ते नही हैं लेकिन अगर कभी कहीं चले भी गये तो महादेव का तिलिस्म उन्हें वापस खींच लाता है। काशी वासियों की तो छोड़िए साहब यहां किसी खास मकसद से आने वाले तमाम ऐसे लोग भी हैं जो यहां के रहस्य को बूझने की जिजिविषा में यहीं के होकर रह गये। सात समंदर पार से आने वाले फिरंगी भी अक्सर यहां कुछ ऐसा पाते हैं कि वो प्राप्ती की और चाहत के साथ यहीं जिंदगी गुजार देते हैं। सुध बुध खोकर काशी में बनारसी बन कर रहने वाले इन लोगों को हो सकता है आप हिप्पी कहें लेकिन साहब एक बार आप इनसे बतिया के तो देखिए चमड़ी का रंग भले इनका जुदा है पर इनकी हर अदा बनारसी है। तथाकथित माॅडर्न सोच वाले लोगों की निगाह में काशी के लोग फूहड़ होते हैं। वो भदेस भाषा बोलते हैं। बात बात पर गालियां देते हैं। अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। वो आलसी होते है। जौन होई तौन देखल जाई का झूठा मंसूबा पालते हैं। भांग छानते हैं। गांजा पीने से लेकर हर तरह का नशा करते हैं। अपनी इस कमजोरी को मस्ती का नाम देते है। उनकी सोच में मूर्खता कूट कूट कर भरी होती है। लेकिन काशी का आम रहिवासी खुद को बनारसी कहलाने पर गर्व करता है। उसे अपनी इस शख्सियत पर नाज़ है। वह नये जमाने की सोच को अपने ”एप्पर” रखता है।

यकीन मानिए काशी के रहस्य को तलाशना, उसे उजागर करना या उस पर कुछ लिखना सहज नहीं है। तमाम सारे मसलों को काशी के मिजाज के अनुरुप रखना, काशी के हर पहलू को छूना अपने आप में एक चुनौती है। काशी की आध्यात्मिकता, इसके जीवन दर्शन, इसकी संस्कृति, इसकी आबोहवा और इसकी परम्परा से दुनिया के दूसरे हिस्से के लोगों को रूबरू कराना जोखिम है। हमने इस जोखिम को उठाने का बीड़ा उठाया है। काशी रहस्य के इस फेसबुक पेज पर किस्सागोई के जरिए हम आपको काशी की रहस्यमय कथा सुनाएंगे। परत दर परत धरोहर बनते इस शहर को तस्वीरों और वीडियो के जरिये आपको दिखाने का प्रयास करेंगे। इस शहर से जुड़ी उन तमाम सूचनाओं से आपको वाकिफ कराएंगे जिसे आपको जानना जरूरी है। हम काशी की बात काशिका में करने का प्रयास भी करेंगे। हमारा मानना है कि जब आप किसी शहर से उसकी खुद की बोली में मुखातिब हो रहे होते हैं तो आपके दिल में उतर रही हर बात यकीनन सिर्फ यही कह रही होती है कि अनोखी तुमरी लीला है तुम ही जानो कि तुम क्या हो…

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