डॉ. ध्रुव कुमार

दिल्ली।  28 तारीख 2020 को न्याय के सबसे बड़े मंदिर ने अन्याय पर अंतरिम आदेश पारित कर दिया।  कहा जा रहा है कि तमाम बड़े कानून के जानकारों, वकीलों और जजों द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई गई तब जाकर न्याय के सबसे बड़े मंदिर ने सरकार को निर्देश दिया की सभी मजदूरों को उनके घर सकुशल पहुंचाया जाए साथ ही उनके आने जाने का कोई किराया ना वसूला जाए। उन्हें यात्रा के दौरान भोजन पानी की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित किया जाना सरकार का दायित्व है। केंद्र व राज्य सरकार अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करें।

वाह रे व्यवस्था के झंडाबरदार खूब व्यवस्था किया। लाखों मजदूर दर-दर भटकने को मजबूर हो गए इसमें कौन सा स्पेस साइंस था, जो इतने महान बुद्धिमान अधिकारियों के समझ में नहीं आ रहा था और 60 दिनों तक कतरन रूपी व्यवस्था के सहारे श्रमिकों को उनके गंतव्य तक पहुंचाया जा रहा था। दरअसल गलती उनकी नहीं थी गुलामी का मुलम्मा उनके जेहन में आज भी जिंदा है। बिना डांटे डपटे कोई काम नहीं करते हैं। रहा सवाल श्रमिकों का तो वे तंगहाली में पहले भी थे आज भी बदहाल हैं। सरकार कह रही है कि कोई किराया नहीं लिया गया तो फिर तमाम चैनलों में चीखते चिल्लाते श्रमिकों का हाल उन्हीं की जुबान से सुनाते पत्रकार गलत तो नहीं हो सकते।

हम व्यवस्था को भी गलत कैसे कह सकते हैं। सारी पुलिस व्यवस्था, डॉक्टर, नर्सेज मरीजों की सेवा दिलो जान से कर रहे थे। सरकारी कर्मचारी एवं रेलवे के कर्मचारी लाखों मजदूरों को ट्रेनों और बसों से उनके घर पहुंचाने के लिए लगे हुए थे। लेकिन राजनीति तो अपना तेवर दिखाएगी ही। उसे तो सिर्फ दोषारोपण करके आगे बढ़ना है। उसके मूल चरित्र में कर्म प्रधान नहीं है। यही विवशता है जो हम बताना चाहते हैं। जानबूझकर राजनीति की जाती है। राज्य सरकार केंद्र पर हमलावर है और आप जानते हैं कि आपता काल में सारी शक्तियां केन्द्र सरकार के अधीन हो जाती हैं। ऐसे में आप नहीं समझ सकते कि दोषी कौन है। घटना का जिम्मेदार किसे माना जाए।

हम बताते हैं आपको सच के पीछे का मूल सच क्या है।  भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक कितने हैं। सभी राज्य सरकारों को यह क्यों पता नहीं है कि उनके यहां से कितने मजदूर किस राज्य में गये और दूसरे राज्यों से उनके राज्य में कितने मजदूर आये। कौन मजदूर क्या काम करता है, उन्हें कितनी मजदूरी मिलती है, उस मजबूरी के सापेक्ष कितने घंटे काम करना पड़ता है और वर्ष में कितनी बार घर लौटते हैं। ठीक-ठीक आंकड़ा किसी राज्य के पास नहीं है। हो सकता है हम आंकड़ों के मामले में गलत हो। सवाल यह हैं कि 60 वर्षों में इस प्रकार के आंकड़ों की जरूरत महसूस क्योें नही हुई। भारतवर्ष में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था बड़ी जटिल थी और कमजोर भी।  कभी जरूरत महसूस नहीं हुआ कि एक सही आंकड़ा सरकार के पास आ जाए। यही कारण था कि अनुमान की बुनियाद पर व्यवस्था को चलाने का चलन पहले से चला आ रहा हैं। अनुमान तो बंद कमरों में लिया गया जाता हैं। जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता।

बताते चलें कि अभी भी ग्रामीण किसानों एवं ग्रामीण श्रमिकों का कोई स्पष्ट आंकड़ा आपके पास नहीं है। ग्रामीण किसान वह व्यक्ति है जिसके पास जमीन है और वह कृषि करता है। ग्रामीण श्रमिक जो भूमिहीन है। लोगों का कृषि कार्य करता है। मनरेगा और दिहाड़ी का काम करता है।  ₹202 मनरेगा की मजदूरी बढ़ाई गई सरकार के इस साहस को हम सलाम करते हैं।  लेकिन यह मजदूरी 250 दिन मिलनी चाहिए। न केवल गांव में बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी शहरी मनरेगा के माध्यम से रोजगार दिए जाने की जरूरत है।  अब आप पूछेंगे कि साहब शहरों में मनरेगा कैसे चलेगा तो जवाब है कि रेलवे पटरियों के दोनों किनारों का सौंदर्यीकरण करके आप श्रमिकों को शहरी मनरेगा में रोजगार दे सकते हैं। साथ ही हाईवे के दोनों किनारों का सौंदर्यीकरण करके, फूल पौधे लगाकर आप शहरी श्रमिकों को रोजगार दे सकते हैं।

आप जानते हैं की वही मजदूरी का पैसा शाम तक टैक्स के रूप में आप के खजाने में लौट आएगा। अर्थव्यवस्था को ताकत मिलेगी, लोगों तक पैसा ज्यादा पहुंचेगा, तो अर्थव्यवस्था तीव्र गति से आगे बढ़ेगी, ऐसा सभी अर्थशास्त्रियों का मानना है। लेकिन फिर सवाल वही खड़ा होता है कि सरकारें जाति, धर्म, संप्रदाय, छल, कपट, विमर्श से बनती बिगड़ती है। तो फिर निर्बल असहाय मजबूर लाचार मजदूरों की वकालत या पैरवी क्यों की जाए।

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