राहुल तिवारी, मैनेजिंग एडिटर, टोटल समाचार

आज मैं आप को ऐसे शख्स के बारे बताने जा रहा हूं जो मेरे दिल के बहुत करीब तो काफी सालों से हैं। लेकिन उसने एक ऐसा काम किया जिससे कि उसके प्रति मेरा सम्मान और भी बढ़ गया। शुरूआत करता हूं उससे मुलाकत से और फिर धीरे धीेरे आपकों उसके बारे में बताऊगां, उसके संघर्षो के बारे में बताऊंगा, किस तरह से उसने पहाड़ों का नाम रौशन किया ये भी बताऊंगा।

मुलाकात

26 नवम्बर सन 2008 तो आप को याद ही होगा। ये वो तारिख हैं जिसे शायद ही कोई भूल सके। इस दिन मुम्बई पर कभी नही भूलने वाला आन्तकी हमला जो हुआ था। मुझे याद हैं कि मैं बनारस में आईबीएन 7 में एक जर्नलिस्ट के तौर पर काम कर रहा था। 26 नवम्बर सन 2008 को अचानक मुझे मेरे हेड़ आफिस से मेरे बास प्रबल सर का फोन आया। उन्होने सबसे पहले मेरा हाल चाल पूछा और कहने लगे तुम इस समय फ्री हो तो एक बात करनी हैं मैने कहा जी सर मैं एक दम फ्री हूं। उस समय मेरे साथ मेरी नानी और मेरी मां दोनो साथ में थी। सर ने कहा कि तुम जानते हो कि रिसेसन को दौर चल रहा हैं मैने कहा जी सर। तो उन्होने फिर कहा कि मै तुम्हे उच्छी तरह से जानता हूं तुम एक अच्छे पत्रकार हो इसी लिये मैं तुम्हे मुम्बई भेजना चाहता हूं। तुम क्या कहते हो। ऐसा सुन मैं सन्न रहे गया। मुझे एक ऐसे शहर में जाना था जहां मैं पहले कभी नही गया। मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे कि मैं मु्बई जैसे बड़े शहर में कैसे काम कर सकुंगा। इन तमाम सवालों के बीच मैने सर को मुम्बई जाने के लिये हा कर दिया। उन्होने कहा कि तुम 2-3 दिन में दिल्ली आ जाओं और फिर मुम्बई चले जाओं। मुम्हई जाने के लिये मैने सर का हां कर दिया। लेकिन उसी दिन मुम्बई में आन्तकी हमला हो गया सो मैरा ट्रांसफर कुछ दिनों के लिये रूक गया। 14 जनवरी 2009 को मैं मु्बई पहुचा और काम करने लगा। मुझे वहां के बारे में कुछ पता न होने के कारण काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा लेकिन धीरे धीरे समय बीतता गया मैं मुम्बई को समझता गया। नौैकरी चलती रही। इसी बीच कुछ  नये रिश्ते बने कुछ नये दोस्त बने कुछ से छोटे भाईयों का प्यार मिला।

उसी दौरान मेरी मुलाकात पी 7 न्युज चैनल में बतौर विडीयो जर्नलिस्ट काम करने वाले गोविन्द सिंह से मुलाकात हुई। गोविन्द से कई बार की मुलाकात के बाद अपनापन मुझे मिलने लगा। गोविन्द मुझे भईया कह के बुलाता था। गोविन्द के अच्छे व्यवहार के चलते मैं भी गोविन्द को अपना छोटे भाई माननेे लगा। बस हमारी और गोविन्द की मुलाकत ऐसे ही होती रही। गोविन्द ने मेरी कई बार मुम्बई में मदद भी की। देखते ही देखते 3.5 साल से ज्यादा का वक्त मैने मुम्बई में व्यतीत कर लिया था। उसी बीच कुछ हालात ऐसे हुए कि मुझे मुम्बई छोड़ 2012 में लखनऊ शिफ्ट होना पड़ा। लखनऊ आने के बाद कभी कभार गोविन्द से फोन पर बात हो जाती थी। कुछ दिनों बाद पता चला कि गोविन्द भी मुम्बई छोड़ कर उत्तराखण्ड के देहरादून में जी न्यूज ज्वाईन कर लिया। गोविन्द उत्तरखण्ड का ही रहने वाला भी हैं। लगभग 2 साल पहले एक बार फिर मेरी मुलाकात गोविन्द से दूहरादून में हूं। हम दोनो ने पुरानी यादें ताजा की। लेकिन गोविन्द ने कुछ महिनों पहले मीडिया जगत को अलविदा कर दिया क्यों कि उसने अपने गांव की तरक्की के लिये जी जान जो लगाना था।

गोविन्द सिंह की प्रेरणक कहानी

कौन कहता हैं कि आसमां में छेद हो नही सकता

एक बार तो तबियत से पत्थर फेकों यारों

पहाड़ों में एक कहावत लोकप्रिय है कि पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती है। इस कहावत को उत्तराखंड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट ब्लाॅक के टुंडाचौडा गांव निवासी गोविन्दसिंह ने झुठलाया है। एक ओर उन्होंने गांव के जंगलों में चाल, खाल, खंतिया बनाकर पानी का संग्रहण किया, ताकि भविष्य में उनके पारम्परिक जलस्रोत रीचार्ज हो सकें। दूसरी ओर पहाड़ काटकर ग्रामीणों के सहयोग से गांव में सड़क लाने की मिसाल पेश की।

17 साल बाद वापस अपने गांव लौटे

गोविन्दसिंह 17 सालों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कैमरामैन की भूमिका में थे। देश के बड़े शहरों के बड़े बैनरों के संग उन्होंने काम किया। दिल्ली, मुंबई से लेकर देहरादून में उन्होंने कैमरामैन के रूप में हजारों स्टोरी कवर की। उनका मन कभी शहर की दिखावा भरी जिंदगी में नहीं रमा। पत्रकारिता जैसी चमक-धमक छोड़कर वे पिछले साल सितम्बर-अक्टूबर में पूरे परिवार के साथ वापस गांव टुंडाचौडा आ गए। गांव लौटने के पीछे अपने गांव का विकसित कर उसे माॅडल के रूप में प्रस्तुत करना उनकी प्राथमिकता थी।

गोविन्दसिंह ने गांव लौटने पर पिछले साल ग्राम पंचायत चुनावों में अपनी पत्नी मनीषा देवी को चुनाव लड़वाया। गांववालों ने उन्हें यह चुनाव जितवाया भी। मनीषा ग्राम प्रधान बनीं। चुनाव जीतने के बाद दोनों की जबाबदेही गांव के प्रति ओर बढ़ गई। रिवर्स माइग्रेशन की उम्मीदों को पंख लगा सपने को साकार करने ही दोनों पति पत्नी गांव लौटे थे।

चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपनी प्रधान पत्नी के साथ गांव के युवाओं के साथ बैठक करते हुए गांव के विकास का खाका तय किया गया और एक सुनियोजित तरीके से गांव में विकास कार्य की शुरुआत करवाई। सर्वप्रथम क्षतिग्रस्त बिजली के खंभों और झूलते तारों को सही किया गया। वृहद्ध सफाई अभियान चलाकर ग्रामीणों को स्वच्छता का संदेश देते जागरूकता की बात हुई। क्षतिग्रस्त पेयजल लाइन की मरम्मत और सुधारीकरण का कार्य किया गया।

ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं की जानकारी बैठक, फोन, फेसबुक पेज के माध्यम से दी जा रही है। पारंपरिक जलस्रोतों में पानी की कमी न हो, इसके लिए बरसात से पहले ही गांव में खंतिया, चाल, खाल का निर्माण करवाया गया, ताकि बरसात के पानी का संग्रहण हो और जलस्रोत रीचार्ज हो सकें। साथ ही गांव को खेती और बगीचे के लिए भी प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध हो। इन कार्यों के धरातल पर पूर्ण होने के बाद गांव को सड़क सुविधा से जोड़ने के लिए ग्रामीणों ने श्रमदान से सड़क निर्माण की बात पर एकजुटता दिखाई।

गांव में सड़क न होने से ग्रामीणों को बेहद परेशानी का सामना करना पड़ता था। आज भी ग्रामीणों को रोजमर्रा की वस्तुओं को पीठ पर लादकर लाना पड़ता है। सड़क न होने से आपातकालीन परिस्थितियों में अधिकतर बीमार व्यक्तियों और गर्भवती महिलाओं को समय पर अस्पताल पहुंचाना दुष्कर था। ऐसी स्थिति में डोली के सहारे बीमार लोगों को सड़क तक पहुंचाया जाता है। बरसों से ग्रामीण सड़क की मांग करते आ रहें हैं। ग्रामीणों की आंखे सड़क के इंतजार में पथरा गई थीं।

लाॅकडाउन का सदुपयोग करते हुए ग्रामीणों ने खुद ही श्रमदान से सड़क बनाने का निर्णय लिया। मई महीने के अंतिम सप्ताह से शुरू हुआ निर्माण कार्य पूरा हुआ, गांव में सड़क पहुंच गई। पहली बार गांव की सड़क पर गाड़ी देख बुजुर्गों सहित सभी की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। ग्रामीणों के चेहरे खुशी का श्रेय गोविन्दसिंह और उनकी पत्नी को जाता है, जिनके हौसलों और जिद ने आजादी के 73 साल बाद गांव को सड़क जैसी मूलभूत सुविधा से जोड़ दिया।

टुंडा चौडा गांव के लिए सड़क बनाने से शुरू हुई इस पहल से आज टुंडा चंडा, ईटाना, दुगईआगर, खेतिगांव, कनारा, कंडारीछीना गांव भी सड़क सुविधा से जुड चुके हैं। 7 लोगों से शुरू हुए इस मिशन में 7 सप्ताह में चार गांवों से अधिक गांवों के ग्रामीणों ने सहयोग कर इसको हकीकत में बदल दिया। छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक ने इसमें सहयोग किया।
ग्रामीणों के परिश्रम और आवश्यकता को देखकर सरकार व स्थानीय प्रशासन द्वारा ग्रामीणों का हरसंभव सहयोग किया गया। बीते बरसों में रिवर्स माइग्रेशन और सामूहिक सहभागिता का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता।
छोटी-छोटी बातों का रोना लेकर बैठने वालों को इस दम्पति से सबक लेना चाहिए जिन्होंने अपने प्रयासों में ग्रामीणों को जोड़कर समस्या को ही जड़ से मिटा दिया।

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