क्योंकि मैं मजदूर हूं,
इसीलिए तो मजबूर हूं.
खाने को परेशान सा,
अपनों से काफी दूर हूं.

जानवर सा सड़क पर रेंग रहा हूं,
दिखाई नहीं देती कोई आस है.
घर तो कहीं दूर रह गया,
बस पहुंचने की उम्मीद पास है.

पड़ रहे पांवों में छाले,
सहने को मजबूर हूं.
सामान की गठरी उठाए,
चल पड़ा काफी दूर हूं.

ऐसा नहीं के सब बुरे हैं,
किसी ने खाना दिया तो किसी ने पानी.
लेकिन गुहार लगानी है जिनसे,
उन्होंने ही तो बात ना मानी.

िघसते मेरे पैर देखकर,
लोगों ने लाकर दे दी चप्पल.
लेकिन घस गई जो किस्मत की रेखा,
क्या मिलेंगे कभी सुकुन के दो पल.

अपने ही देश में लकीरें खींच दी,
पता नहीं क्या बचाने को.
खड़ा हूं जमीन किनारे तुम्हारी,
तैयार नहीं कोई अपनाने को.

रेल चल रही पैसा लेकर,
पैसे से चल रही गाड़ी है.
विपदा ये क्या आई पता नहीं,
मौत से भी जो भारी है.

मिली मुझे एक गाड़ी थी,
भरी जिसमें खूब सवारी थी.
उम्मीद बंध गई घर पहुंचने की,
वो रात बड़ी अंधियारी थी.

कठिन डगर थी घर की मगर,
मिल रहा सबका साथ था.
कुछ दूरी पर पड़ी एक टक्कर,
मेरा क्या अपराध था.

आदमी से लाशों में बनकर,
बदलने का दस्तूर हूं.
क्योंकि मैं मजबूर हूं,
इसीलिए तो मजदूर हूं.

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