वर्ष में नवरात्र के दो अवसर आध्यात्मिक चेतना को जागृत करते हैं. इस अवधि में की गई साधना प्रकृति के अनुरूप होती है.इसका वैज्ञानिक आधार है. नौ दिन अलग अलग शक्तियों का जागरण होता है. देवी दुर्गा का प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री है। नवदुर्गा के प्रथम दिन इनकी आराधना होती है। नव दुर्गा के प्रथम दिन की उपासना में साधक स्वयं को मूलाधार चक्रमें स्थिर करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारम्भ होता है।
देवी का मंत्र-
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‘वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनींम्।
शैपुत्रत्री पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री रूप में अवतरित हुई थी। इसीलिए यह शैलपुत्री नाम से प्रतिष्ठित हुई। शैलपुत्री त्रिशूल व कमल से सुशोभित हैं। अपने पूर्वजन्म में यह प्रजापति दक्षपुत्री थी। इन्हें सती कहा गया। उनकी कथा बहुत प्रसिद्ध है। भगवान भोलेनाथ से इनका विवाह हुआ था। दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में भोलेनाथ की अवज्ञा हुई थी। उनको आमंत्रित नहीं किया गया था। सती के कई बार आग्रह को देखते हुए शिव जी ने अनिच्छा के साथ उनको यज्ञ को देखने की अनुमति दी थी। यहां उन्होंने शिव जी की अवहेलना व अपनी उपेक्षा का प्रत्यक्ष अनुभव किया। इससे उनको विषाद हुआ। उन्होंने अपने को यज्ञ की अग्नि में समर्पित कर दिया। शक्ति पीठों की स्थापना भी इसी प्रसंग से जुड़ी है। यही सती अगले जन्म में शैलपुत्री बनीं। इनका विवाह भी शिव जी से हुआ था।
हैमवती स्वरूप से इन्होंने देवताओं का गर्व भंजन किया था। जगदंबा दुर्गा का दूसरा स्वरूप मां ब्रह्मचारिणी के नाम से प्रतिष्ठित है। इन्होंने स्वयं तपस्या के माध्यम से प्राणिमात्र को सन्देश दिया। उन्होंने तपोबल के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। तपस्या के बल पर परमात्मा की कृपा को प्राप्त किया जा सकता है। सामान्य भक्त भी देवी ब्रह्मचारिणी की आराधना से सर्वसिद्धि को प्राप्त कर सकता है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है।कठोर तप से सच्चे साधक विचलित नहीं होते है। साधना में मंत्र जाप का विशेष महत्व होता है-
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
ब्रह्मचारिणी कठोर तप की प्रतीक है। ब्रह्म का भाव तपस्या से है। मां ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप,त्याग,वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली है। यह जप की माला व कमण्डल धारणी करती है। पूर्वजन्म में इन्होंने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था। नारद जी की प्रेरणा से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। कठिन तपस्या के कारण वह तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी रूप में प्रतिष्ठित हुईं। इनकी मनोकामना पूर्ण हुई। नवरात्रि के तीसरे दिन चंद्रघंटा माता की पूजा आराधना की जाती है। चंद्रघंटा की पूजा करने शुभता का विकास होता है। भक्त में शालीनता सौम्यता आत्मनिर्भरता और विनम्रता आदि का जागरण होता है। देवी का यह रूप अत्यंत शांत और सौम्य हैं। माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा और मंदिर के घंटे लगे रहने के कारण देवी का नाम चंद्रघंटा पड़ा है। इनका वाहन सिंह है। इनकी दस भुजाओं में खडग, तलवार ढाल,गदा,पास, त्रिशूल,चक्र और धनुष है। इन प्रतीकों के रहते हुए भी मां सदैव प्रसन्न व सकारात्मक भाव में रहती है। देवासुर संग्राम में असुर विजयी रहे थे। महिषासुर ने इंद्र के सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। उसने अपने को स्वर्ग का स्वामी घोषित किया था। अपनी व्यथा लेकर देवता ब्रह्मा,विष्णु और महेश के पास गए थे। ब्रह्मा,विष्णु और शिव जी के मुख से एक ऊर्जा उत्पन्न हुई। अन्य देवताओं के शरीर से निकली हुई उर्जा भी उसमें समाहित हो गई।
यह ऊर्जा दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक कन्या उत्पन्न हुई। शंकर भगवान ने देवी को अपना त्रिशूल भेट किया। भगवान विष्णु ने भी उनको चक्र प्रदान किया। इसी तरह से सभी देवता ने माता को अस्त्र शस्त्र देकर प्रदान किये। इंद्र ने भी अपना वज्र एवं ऐरावत हाथी माता को अर्पित किया। यही माता चन्द्रघण्टा थी। उन्होंने असुरों को पराजित कर देवताओं को पुनः स्वर्ग में स्थापित किया।
पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता मंत्र से भगवती दुर्गा के तीसरे स्वरूप में चन्द्रघण्टा की उपासना की जाती है।
वन्दे वाच्छित लाभाय चन्द्रर्घकृत शेखराम्।
सिंहारूढा दशभुजां चन्द्रघण्टा यशंस्वनीम्घ्.