आशुतोष पाण्डें, वरिष्ठ पत्रकार, वाराणसी.
कालगणना में 28 जनवरी और 17 अगस्त के बीच कोई साम्य हो सकता है! साम्य भले ही न हो, कालप्रवाह के ओर-छोर तो जुड़ते ही हैं। एक तिथि ऋतु वसंत के आसपास पड़ती है। दूसरी तिथि पावस ऋतु में मेघदूतों की हलचल से मगन हो रहे गगन की झलक देती है।
इस भला संयोग मात्र कैसे हो सकता है कि 90 वर्ष पूर्व प्रकृति ने इस हिरण्यगर्भा धरा पर भविष्य के संगीत मार्तण्ड के अवतरण के लिए ऋतुराज की क्रीड़ा अवधि को चुना!! पूस- माघ और फागुन की शीत व प्रखरता की ओर बढ़ती सूर्य रश्मि ने नेपथ्य में पंडित जसराज के व्यक्तित्व को उस रसायन से पुष्ट किया जिसने उन्हें उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव में साधिकार गायन में सक्षम बनाया! वह इकलौते भारतीय गायक हैं जिन्होंने सातो महाद्वीप में अपने स्वरों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की सुरभि बिखेरी है। ऋतुराज की ही देन है कि तीन वर्ष का बालक पग-नूपुर में पिता से दाय के रूप मिले सात सुरों को इंद्रधनुष सा सजा सका। फिर वह मेघदूतों के और मेघदूत उनके सहचर क्यो नहीं बनते! पावस के रसराज पंडित जसराज ने ” मूर्छना” शैली विकसित की है। यह संगीत में ही संभव है कि मूर्छित नहीं करती, मूर्च्छा दूर कर देती है। संगीत मार्तण्ड भी संगीत आकाश से वही करते रहेंगे।
गायन में उच्चारण की शुद्धता और स्पष्टता ही है कि श्रोताओं के हृदय उनका गाया-“ओम नमो भगवते वासुदेवाय.., अधरम मधुरं…, शिवमहिम्न स्तोत्र” ही नहीं गुनगुनाते बल्कि” माई तेरो चिर जीयो गोपाल” भी बार बार सुनने को उत्सुक रहते हैं।