कोरोना काल के बाद

 

 

वरिष्ठ पत्रकार शारदा शुक्ला की कलम से…..

कितना सुकून भरा है ये सोच कि कोई दिन ऐसा भी आएगा जब हम कोरोना के डर से मुक्ति पा चुके होंगे। सच जानिए वो दिन ज़रूर आएगा। हां उसे आने में थोड़ा वक्त लगेगा।

आज हम सब खौफ के साए में जी रहे हैं। मौत का खौफ बीमारी का खौफ, लेकिन नज़र अगर उस पार डालें तो ये दौर हमें बहुत कुछ देकर जाने वाला है। इसके बाद हममें से 10% लोग भी अगर प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जागरूक हो गये तो क्या ये हमारे लिए किसी वरदान से कम होगा। हम साफ़ सफाई के लिए अब जो सजग हुए तो पीढ़ियों तक सजग ही रहेंगे।


आज हर तरफ आर्थिक मंदी की बात हो रही है,और ऐसा है भी।पूरा अर्थ जगत इस समय लड़खड़ा गया है, लेकिन जहां बहुत से व्यवसाय लॉकडाउन की वजह से बंद हो गये है कुछ समय बाद नये व्यवसाय नई शक्ल में हमारे सामने आएंगे। लोग परम्परागत व्यवसायों की ओर वापस लौटेंगे। खेती के प्रति लोगों का और सरकार का नज़रिया अधिक सकारात्मक हो जाएगा।

वक्त ने हमें सोचने पर मजबूर किया है कि अपना गांव और घर छोड़कर दूसरे बड़े शहरों में जाकर बसना,काम करना क्या हमेशा ज़रूरी होता है,क्या कई बार हमारी खोखली महत्त्वाकांक्षाएं हमें वहां तक खींच कर नहीं ले जाती? इंसान को जिंदगी जीने के लिए क्या चाहिए होता है,साफ़ हवा, शुद्ध पानी भरपेट भोजन और दो जोड़ी कपड़े। इसके बाद जो कुछ है वो भ्रम है। खुद से सवाल पूछिए क्या महानगरों में बसे लोग ये नैसर्गिक संपदा पा पाते हैं?

विगत दिनों एक और चलन तेजी से चला है, विदेशों में बच्चे पढ़ाने का और वहीं बस जाने का। भई!क्या हमारे देश में स्कूल कॉलेजों की कमी है? पर यहां तो बात ज़रूरत की नहीं स्टेटस की है।

अब थोड़ी सी चर्चा इस लॉकडाउन में सामाजिक और पारिवारिक परिवेश की।तो ये लॉकडाउन रिश्तों को भी नये ढ़ंग से परिभाषित कर रहा है। घरेलू हिंसा की बढ़ती वारदातें बता रही हैं कि एक छत के नीचे रहने वाले लोगों में कितना समभाव है।

जहां कभी हमारे समाज में 20-22 लोग बिना लड़ाई झगडे के रहा करते थे वहां चार लोग भी एक दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।

आज हमें पड़ोसियों की कीमत समझ आ रही है।हमने आंखें खोलकर अपने पास की चीजों को देखना शुरू किया है वरना अब तक तो हमें हर दूर की चीज़ ही सुंदर लग रही थी।

सामाजिक परिवेश की चर्चा हो और दबे छुपे रिश्तों की बात ना की जाए तो चर्चा अधूरी है। कोरोना से उपजे लॉकडाउन ने परिवार से बाहर खुशियां तलाशने वाले लोगों के रिश्तों को भी पुनर्परिभाषित किया है।
इस विपत्ति का सामना करते हुए हम घरेलू कामों के मामले में आत्मनिर्भर हो रहे हैं। ये समय हमें अपरिग्रह भी सिखा रहा है। उतना ही रखो जो जरूरी है।

संक्षेप में….कोरोना के कैनवस पर प्रकृति कोई पटकथा लिख रही हैं जिसका The End हर हिंदी फिल्म की तरह सुखद ही होगा।

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