वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी शर्मा की कलम से..

शराब की दो घूंट हलक में उतारने के लिए जिस तरह लोग बेकाबू होते दिखे उसने कोरोना की भयावहता को और बढ़ा दिया है.. सोचिए कितनी विडंबना है कि एक ओर अनगिनत मज़दूर भूखे प्यासे पैदल ही मूल घरों की ओर भागे जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर शराब के लिए मुंह मांगी कीमत देने को लोग तैयार हैं.. यक़ीनन इस हालात के लिए केंद्र और राज्य सरकारें ज़िम्मेदार हैं.. एक बड़े कारोबारी नेता ने टीवी पर कहा सरकार ने ठीक नहीं किया.. अरे कारोबारियों से कहती तो वो सरकार का ख़ज़ाना भर देते.. इस तरह शराब के लिए हुजूम जुटाने की भला क्या आवश्यकता थी.. अब कारोबारी नेता उत्साह में बोल गए या वाकई वो मदद करेंगे ये तो समय ही बताएगा लेकिन फ़िलहाल सरकार तो शराब बेचने में जुटी है..

सवाल उठता है कि जब देश के संजीदा लोग घरों में बाल बच्चों संग क़ैद हैं तो फ़िर सरकार ने इतना बड़ा जोख़िम क्यों उठाया है.. सोचिए तब्लीगी जमात के लोगों ने जब नर्क मचाया तो खूब हो हल्ला मचा.. सवाल मैंने भी मुखर किया लेकिन अब शराब का धंधा भी सरकार की छवि पर बट्टा लगा चुका है.. शराब ख़रीदने के लिए जब भीड़ बेक़ाबू हो रही है तो सोचिए पीने के बाद कितना गदर मचेगा.. डेढ़ महीने से जो लोग घरों में सुख शांति से कोरोना को मात देने में जुटे हैं उनका मन तो अशांत और बेचैन हो ही गया है.. सवाल हो रहा है कि शराब अमरत्व तो देता नहीं फ़िर कोरोना काल में ही इसे क्यों चालू किया गया.. धुरंधर शराब प्रेमियों को मेरी बात बुरी लग सकती है लेकिन जो समाज के प्रति संवेदनशील हैं वो भी सहमत होंगे कि इससे सुख शांति का हनन ही होगा.. वैसे भी शराब बिक्री के साथ ही परिणाम भी सामने आने लगे हैं.. कहीं भाई ने भाई का क़त्ल कर दिया तो कहीं पत्नी, बच्चों पर ताकत आज़माइश हो रही है..

बरेली में शराब के नशे में वकील साहब ने जहां एक महिला पर फायरिंग कर दी तो वहीं एक मुस्लिम शख़्स ने रमज़ान के पाक महीने में ही दो घूंट हलक में उतारकर बेबस पत्नी को तीन तलाक दे दिया.. सरकारें क्यों नहीं समझतीं हैं कि शराब पीकर सामान्य रह पाना सबके बूते की बात नहीं है.. सोचिए सम्पन्न आदमी शेखी में किसी तरह संभल भी जाता है लेकिन ग़रीब आदमी पर इस समय क्या गुज़र रही होगी.. एक तो नौकरी धंधा नहीं उपर से तलब.. किसी तरह नमक रोटी से परिवार का पेट पाल रहा था अब लत ने उसके सोए अरमान को पंख लगा दिया है.. अब खुद को तर करने के लिए या तो कर्ज़ ले या फ़िर चोरी से पत्नी के गहने बेचे.. परिवार वालों को लगा चलो लॉक डाउन में सुधर जाएगा.. वो घर में बच्चों संग रहकर पारिवारिक नशे में डूब जाएगा.. लेकिन अब तो कृत्रिम नशे की तलब हिलोरे मारने लगी हैं..

कोरोना से लड़ाई लंबी है ये आज बच्चा बच्चा भी जनता है लेकिन देश चलाने वालों ने लड़ाई और लंबी कर दी है.. शराब को ज़रुरी बताकर अपराध को बढ़ावा देने का काम हुआ है.. मेरे सुरा प्रेमी मित्र सोच रहे होंगे मैं नाहक ज्ञान दे रहा हूं तो उन मित्रों से कहूंगा हो सकता है कि आप पर नशा बेअसर होता हो लेकिन ऐसे रोज़ अनगिनत मामले सामने आते हैं जब इंसानियत शर्मसार होती है.. कहीं नशे में बेटा पिता का क़त्ल करता है तो कहीं शराब पूरे परिवार को ही लील जाता है.. अभी हाल में ही नशे की लत ने मेरे एक क़रीबी रिश्तेदार की जान ले ली.. नशे की तलब इतनी थी कि लीवर, किडनी सब बेकार हो चुकी थी.. शराब के लिए वो इतना तड़पते कि नौजवान बेटे को खुद इंतज़ाम करना पड़ता.. ऐसा नहीं कि उनका इलाज़ नहीं हुआ.. उन्हें मुंबई, पुणे के नशा मुक्ति अस्पतालों में भर्ती कराया गया.. कुछ दिन वो ठीक भी रहते लेकिन फ़िर वही मौत वाला नशा.. आख़िरकार उन्होंने कम उम्र में ही परिवार का साथ छोड़ दिया..

पत्रकारिता के दौरान मैंने जितनी भी अपराध पर स्टोरी लिखी है उसमें शराब का रोल बहुत ज़्यादा रहा है.. मुझे याद है महाराष्ट्र के ठाणे में किस तरह से शराब के लिए पैसे नहीं देने पर एक बेटे ने पिता को कैंची मारकर मौत के घाट उतार दिया था.. मुंबई से सटे मीरारोड के जिस अपार्टमेंट में मैं रहता था उसके पास के अपार्टमेंट में एक रिटायर्ड नर्स को उसके घर के अंदर घुसकर इमारत के स्वीपर ने ही मौत के घाट उतार दिया.. अपराधी मूलतौर से पंजाब का निवासी था.. वो पत्नी, बच्चों संग मीरारोड में ही रहता था.. नर्स दयालु महिला थीं.. वो उसकी मदद करती थीं.. वारदात की रोज़ नर्स ने उसे खाना भी खिलाया था लेकिन उस दिन स्वीपर शराब की नशे में था.. उसने नर्स का सोने का चेन लूटने की नीयत से चाकू से गला ही रेत दिया.. हालांकि वो परिवार समेत पंजाब भागने से पहले ही धरा गया..

मैं मुंबई के शुरुआती दिनों में अंधेरी के जिस मराठी परिवार के घर में किराया पर रहा.. वहां जो देखा वो आपसे साझा कर रहा हूं.. चॉलनुमा घर की मालकिन विधवा थीं.. चार बच्चों की परवरिश वो दूसरों की घरों में बर्तन साफ करके करती थीं..

जब उन्हें सैलेरी मिलती या मैं जब किराया देता तो घर में मछली समेत मनपसंद व्यंजन बनता.. उस दिन बच्चे बहुत खुश रहते.. मुझे बच्चों से पता चला कि उनके पिता बहुत ज़्यादा शराब पीते थे.. लीवर खराब हो गया और चल बसे.. परिवार से मेरा इंसानी रिश्ता बन गया था.. बच्चे मुझे भाई और मैं भी उनकी मां को आई कहने लगा.. उस दौरान मैंने आई की जेठानी की मुसीबत को भी नज़दीक से देखा.. उसका पति भी दिन रात पास के बियर बार के पास पड़ा रहता.. बूढ़ी जेठानी भी दूसरों के घरों में बर्तन माजने को मज़बूर थी..इस तरह की अनगिनत कहानियां आपके आसपास भी मिल जाएंगी..

हमारे समाज में आज भी कई ऐसी माहिलाएं हैं जो पति के ज़ुल्म को सह लेंगी लेकिन कुछ कहेंगी नहीं.. मीरारोड के मेरे फ्लैट के उपरी हिस्से में एक उत्तर भारतीय परिवार की महिला और उसके बच्चे रात होते ही चीखने चिल्लाने लगते.. परिवार का पुरुष सदस्य शराब पीकर पत्नी, बेटियों का बेरहमी से बाल पकड़ कर दीवार पर दे मारता.. दर्द से निकली चीखें पड़ोसियों तक को रुला देती थीं..

मैं भी पहुंचता तो शराबी कहता ऐ रुको ये हमारे परिवार का मामला है.. महिला, बच्चों के सर से निकलता खून मुझे तो क्रोध से भर देता.. मैं पुलिस बुलाने की कोशिश करता तो पीड़ित महिला गिड़गिड़ाने लगती.. जाने दीजिए भइया.. मेरे पति को छोड़ दीजिए.. ना चाहते हुए भी हम सभी को लौटना पड़ता लेकिन ये सिलसिला चलता रहा.. महिला, बच्चे तकलीफ़ सहते रहे.. वो आदमी नहीं सुधरा.. कर्ज़ में डूबकर फ्लैट बेंचकर परिवार समेत उसे किराए के घर में जाना पड़ा..

आख़िर में दिल्ली की घटना आपसे साझा कर रहा हूं.. एक बड़े पत्रकार ने इतनी पी ली कि सड़क पर गिर गए.. सर फूट गया.. ग़नीमत रही कि किसी गाड़ी के नीचे आने से बच गए.. उनकी हालत के बारे में घर में पत्नी, बच्चों को भी पता नहीं था.. किसी ने घर पहुंचाया तो कसमें खाने लगे अब दारू शराब बंद लेकिन उनकी ये कसम ठीक होने के बाद फ़िर से डोल गयी.. वैसे वो इस तरह की कसमें खाते और तोड़ते रहते हैं..

दिल्ली के प्रेस क्लब के बाहर तो एक बड़े पत्रकार पीकर सड़क पर लोटने और बहकने लगे.. साथियों ने कहा रात हो रही घर नहीं जाना.. वो बोले घर ही तो जा रहा हूं लेकिन पहले एक गाना सुन लो.. फ़िर क्या देश विदेश में अपना डंका बजा चुके वरिष्ठ पत्रकार महोदय वहीं बैठकर ज़ोर ज़ोर से गाने लगे.. मौक़े पर मैं भी मौजूद था सो तरस खा कर उन्हें मेट्रो स्टेशन तक पहुंचाया लेकिन वो मेट्रो में कितने प्रयास में चढ़े उसका गवाह नहीं बन सका.. दूसरे दिन सुबह इंसानियत के नाते मैंने फोन किया तो वो रात की घटना को भूल चुके थे.. वो बहुत उत्साहित थे और ऐसा लगा वो कोई बड़ी जंग जीतकर घर पहुंचे थे..

 

अब सोचिए जब शराब इंसान के सोचने समझने की शक्ति को ख़त्म कर देती है तो फ़िर आख़िर लॉक डाउन को ख़तरे में डालने की क्या आवश्यकता थी.. अरे इस समय तो परिवार को आध्यात्मिक सुकून चाहिए.. कोरोना से लड़ने के लिए शरीर के साथ मन को मज़बूत करना होगा.. बच्चों के और क़रीब जाना होगा.. हो सकता है परिवार के किसी बच्चे में ही नशे की लत हो या वो दिन रात मोबाइल गेम में डूबा रहता हो.. अब उसे सुधारने की बजाय परिवार का मुखिया खुद शराब में डूबे तो भला परिवार के बाकी सदस्यों को क्यों अच्छा लगेगा.. ज़िम्मा आख़िर किसका है.. सोचिएगा.. विचार कीजिएगा.. अगर किसी शराब प्रेमी मित्र को मेरी बातें पसंद न हो तो कृपया माफ़ करें लेकिन मेरी मुहिम जारी रहेगी..

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