इस गांव में है भगवान स्वामी नारायण की ननिहाल, घर-घर में होती है कथा

गोण्डा। आज टोटल समाचार की टीम आपको बतायेगी स्वामी नारायण के कुछ रहस्यों के बारें। तो आईये देर किस बात की हैं निकल पड़ते हैं स्वामी नारायण के रहस्य को जानने के लिये… रहस्य के जानने के लिये हमें चलना पड़ेगा उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले में। जिले के सदर तहसील का तरगांव आज भी देश और दुनिया भर में करोड़ों भक्तों के दिलों में बसने वाले भगवान स्वामी नारायण के बाललीलाओं का साक्षी है। यहीं बाल्यावस्था में उन्होंने अनेक लीलाएं कर लोगों को अचंभित किया था।

जिले के सदर तहसील का तरगांव आज भी देश और दुनिया भर में करोड़ों भक्तों के दिलों में बसने वाले भगवान स्वामी नारायण के बाललीलाओं का साक्षी है। यहीं बाल्यावस्था में उन्होंने अनेक लीलाएं कर लोगों को अचंभित किया था। यही स्थान उनके बाल्यावस्था में ननिहाल में बीते पलों का गवाह है। आज भी यहां के भगवान वही हैं और लोग अपने इस भगवान की बाललीला, जीवन गाथा भी बड़े गर्व से सुनाते हैं। लेकिन इस बार कोरोना वायरस के कारण देश भर में लाक डाउन के कारण यहां भी उनका जन्मोत्सव नहीं मनाया जा सका।

तरगांव में 250 वर्ष पूर्व हुआ था माता पिता का विवाह

गोंडा जिले के ही छपिया गांव के निवासी भगवान स्वामी नारायण के पिता हरि प्रसाद उर्फ धर्मदेव पाण्डेय इटार पाण्डेय थे और तरगांव निवासी उनकी माता भक्ति देवी ब्राहमणों की उपजाति बड़गइयां दूबे से थीं। उनके माता-पिता का विवाह 250 साल पहले तरगांव के जिस मंडप में हुआ था। उसके अवशेष आज भी यहां विद्यमान हैं। बचपन में वह ज्यादातर ननिहाल में रहे इसलिए इसी चबूतरे पर 08 वर्ष की अवस्था में भगवान स्वामी नारायण का जनेऊ संस्कार भी किया गया था। उनके पिता और माता के विवाह का यह मंडप (अब चबूतरा) भी उस दौर की याद दिलाता है। भक्ति देवी के बाद नौवीं पीढ़ी के काशी प्रसाद दूबे और उनका परिवार मंदिर में पूजा अर्चना के साथ इस प्राचीन विरासत की भी देखभाल करता है।

बाल लीलाओं का साक्षी प्राचीन शिव प्रतिमा, पोखरा

जिला मुख्यालय से करीब मात्र 12 किमी की दूरी पर स्थित है तरगांव ग्राम। यहां स्थित प्राचीन शिव प्रतिमा और मंदिर के अवशेष ग्रामीणों के तर्क का आधार है। यहां के ग्रामीण बताते हैं कि महादेव पोखरे में एक महावत हाथी को नहला रहा था तब हाथी ने महावत को मारने का प्रयास किया लेकिन बालक घनश्याम ने उसे बचा लिया। एक और घटना में नहाते समय कांटा चुभने पर खून से पानी लाल हो गया और अचानक आए वैद्य ने उन्हें ठीक कर दिया। मौजूदा समय में उनके समय के मंदिर तो समाप्त हो गए हैं, लेकिन उनकी बाल लीलाओं का साक्षी रहा पोखरा आज भी है। पोखरे के निकट प्राचाीन महादेव मंदिर भी था, जिसमें पोखरे में भगवान स्वामी नारायण को मिली भगवान की शिव की मूर्ति स्थापित थी। यहां के अनेक ग्रामीणों का दावा है कि लाखौरी ईंट से बने इसी शिव मंदिर में भगवान पूजा करते थे। लगभग 40 वर्ष पहले पुराना मंदिर ध्वस्त होने के बाद अब यहां नए मंदिर निर्माण 25 साल पहले करवाया गया है। इस मंदिर में भगवान घनश्याम के ही प्रतिमा की पूजा होती है।

सर्व अवतारी माने जाते हैं स्वामी नारायण

भगवान स्वामी नारायण को विभिन्न रुपों में देखा गया। उनमें अधिकांश में वह कृष्ण भगवान के रुप में है। मंदिरों में इसी रुप में उनकी मूर्तियां लगीं हैं। 03 अप्रैल 1781 (चैत्र शुक्ल 9 वि.संवत 1837) को गोंडा जिले के छपिया ग्राम में उनका जन्म हुआ। राम नवमी होने से सम्पूर्ण क्षेत्र में पर्व का माहौल था। पिता हरि प्रसाद उर्फ धर्मदेव व माता भक्तिदेवी ने उनका नाम घनश्याम रखा। बालक के हाथ में पद्म और पैर से बज्र, ऊर्ध्वरेखा तथा कमल का चिन्ह देखकर ज्योतिषियों ने कह दिया कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सच्चा मार्ग दिखाएगा। एक दिन पिता धर्मदेव ने अल्प आयु में ही बालक घनश्याम की अभिरूचि और प्रतिभा का परीक्षण करने के लिए एक जगह एक स्वर्ण मुद्रा, एक चाकू और एक गीता की पुस्तक को रखा। उन्होंने पुत्र को से उन वस्तुओं में से एक चुनने के लिए कहना चाहा कि उससे पहले ही घनश्याम ने गीता की पुस्तक को अपने हाथ में उठा लिया। इसे देखकर उनके पिता आश्चर्यचकित हो गये। पांच वर्ष की अवस्था में इस अद्भुत बालक को अक्षर ज्ञान दिया गया। छोटी अवस्था में ही उसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। 11 वर्ष की आयु में ही उनके माता व पिता का देहांत हो गया। अपनी संत प्रवृत्ति के कारण उन्होंने घर त्याग दिया और सात वर्षों तक पूरे देश की परिक्रमा की। अब लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे। घूमते घूमते वे उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कांची, श्रीरंगपुर, रामेश्वरम् के बाद गुजरात पहुंच गये।

नीलकंठवर्णी घनश्याम से बने सहजानंद

नीलकंठवर्णी घनश्याम मांगरोल के पास ‘लोज‘ गांव में पहुंचे तो वहां उनका परिचय स्वामी मुक्तानंद में हुआ, जो स्वामी रामानंद के शिष्य थे। कुछ समय बाद स्वामी रामानंद ने नीलकंठवर्णी को पीपलाणा गांव में दीक्षा देकर उनका नाम सहजानंद रख दिया। एक साल बाद जेतपुर में उन्होंने सहजानंद को अपने सम्प्रदाय का आचार्य पद भी दे दिया। स्वामी रामानंद जी के गोलोक वासी होने पर स्वामी सहजानंद ने गांव-गांव घूमकर सबको स्वामी नारायण मंत्र जपने को कहा। उन्होंने निर्धन सेवा को लक्ष्य बनाकर सब वर्गों को अपने साथ जोड़ा। इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। वे अपने शिष्यों को पांच व्रत लेने को कहते थे। इनमें मांस, मदिरा, चोरी, व्यभिचार का त्याग तथा स्वधर्म के पालन की बात होती थी। भगवान स्वामी नारायण ने जो नियम बनाये, वे स्वयं भी उनका कठोरता से पालन करते थे। उन्होंने यज्ञ में हिंसा, बलिप्रथा, सतीप्रथा, कन्या हत्या, भूत बाधा जैसी कुरीतियों को बंद कराया। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः गुजरात रहा। प्राकृतिक आपदा आने पर वे बिना भेदभाव के सबकी सहायता करते थे।

कराया भव्य मंदिरों का निर्माण

भगवान स्वामी नारायण ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। इनके निर्माण के समय वे स्वयं सबके साथ श्रमदान करते थे। उन्होंने गुजरात के अहमदाबाद, मूली, भुज, जेतलपुर, धोलका, वड़ताल, गढ़डा, धोलेरा तथा जूनागढ़ में भव्य मंदिरों का निर्माण किया। जन्म भूमि छपिया में भी उनका भव्य मंदिर है। इन मंदिरों में स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना देखने का मिलता है। केवल अमरीका में स्वामी नारायण के तीन दर्जन मंदिरों के साथ दक्षिण अफ्रीका, पूर्वी अफ्रीका और ब्रिटेन में भी स्वामी नारायण के कई मंदिर हैं। गोंडा मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूरी पर स्वामी नारायण भगवान की पवित्र जन्मस्थली में वर्ष 1945 मंे स्वामी नारायण सम्प्रदाय के अनुयायियों ने घनश्याम महाराज का अलौकिक मंदिर बनवाया। वर्तमान में इसे नया रुप देकर और भव्यता दी गई है। मंदिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने एक पवित्र सरोवर है। इस मंदिर में नवमी के दिन श्रद्धालु सरोवर में स्नान कर मंदिर में छप्पन भोग लगाते हैं। धर्म के प्रति श्रद्धाभाव जगाते हुए भगवान स्वामी नारायण ने वर्ष 1830 में अपना शरीर छोड़ दिया और ब्रहमलीन हो गए। आज भी उनके करोड़ों अनुयायी देश ही पूरे विश्व में फैले हैं। देश दुनिया में बने मंदिरों की देखभाल वर्तमान में भगवान स्वामीनारायण के भाई राम प्रताप के वंशज ही कर रहे हैं।

ननिहाल में हर साल होता है प्राकट्योत्सव

स्वामी नारायण भगवान के ननिहाल तरगांव में उनकी यादगार में उनका प्राकट्योत्सव हर साल मनाया जाता है। इसके कर्ता धर्ता काशी प्रसाद दूबे व उनके पुत्र शिव शंकर ने बताया कि इसमें शामिल होने गुजरात समेत अनेक प्रदेशों व विदेशों से भी हजारों की संख्या में उनके भक्त आते हैं। वैसे पूरे साल हजारों की संख्या में भक्तों का आगमन होता हैं। इस मौके पर सप्ताह भर भगवान की कथा और भंडारा चलता रहता है।

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