4 जुलाई स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि पर विशेष

शारदा शुक्ला, वरिष्ठ पत्रकार.

स्वामी विवेकानंद का जिक्र आते ही गेरुए अंगवस्त्र पहने,गेरुए रंग की पगड़ी सिर पर बांधे,चमकीली आंखों वाले एक नौजवान की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है जिसने विश्व पटल पर भारत और भारतीयता को मान्यता दिलाई । जिसके तेजस्वी व्यक्तित्व में दुनिया का मार्गदर्शन करने की कूबत थी। आज के दौर में जब वर्तमान पीढ़ी वैचारिक तौर पर भ्रमित नज़र आ रही है विवेकानंद और भी सामायिक हो जाते हैं। अगर ये समय कोरोना जैसी महामारी का ना होता तो शायद मैं भ्रमित शब्द का इस्तेमाल भी ना करती। क्योंकि आज जिन सामाजिक कायदों को अपनाने की बात पर WHO कर रहा है। सरकारें जिन पर जोर दे रही हैं साठ सत्तर दशक पहले तक वो ही हमारी जीवन शैली थी। हमारी संस्कृति थी।

संस्कृति जन्मती है धर्म शास्त्रों से। ज्ञानी लोग इन धर्म ग्रंथों पर गहरे शोध के बाद समाज को बताते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। क्या अपनाने योग्य है और क्या त्यागने के।

 

अठ्ठारवीं शताब्दी के मध्य में ऐसे ही एक विद्वान मनीषी का जन्म कोलकाता के एक क्षत्रिय परिवार में हुआ। माता-पिता ने बालक का नाम नरेन्द्र रखा । नरेंद्र के पिता और माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैये ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की। बचपन से ही ईश्वर को जानने की इच्छा उनके मन में बलवती होने लगी। यही इच्छा उन्हें रामकृष्ण परमहंस के पास ले गई जहां से आगे उनकी नरेंद्र से विवेकानंद बनने की यात्रा शुरू हुई।

विवेकानंद अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजी पढ़े लिखे एक ऐसे युवा थे जिन्होंने भारतीय दर्शन और अध्यात्म में ही अपना और अपने देश का भविष्य देखा। उन्होंने ना केवल भारतीय प्राचीन ग्रंथों की मीमांसा की बल्कि संपूर्ण विश्व को उसका मर्म समझा या। विवेकानंद पहले भारतीय थे जिन्होंने पाश्चात्य जगत को भारतीय दर्शन का लोहा मानने पर मजबूर कर दिया।विवेकानंद की जब भी बात होती है तो अमरीका के शिकागो की धर्म संसद में साल 1893 में दिए गए भाषण की चर्चा ज़रूर होती है.

ये वो भाषण है जिसने पूरी दुनिया के सामने भारत को एक मजबूत छवि के साथ पेश किया.उन्होंने भारत को शून्य समझने वालोें को बताया कि हम वो शून्य हैं जो अंकों के मायने बदल देते हैं। विवेकानंद का व्यक्तित्व बताता है कि आप भाषा कोई भी बोले विचार अपने होने चाहिए। उनकी दृष्टि में पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियां धर्म नहीं हैं। धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ना है। क्योंकि जीव मात्र में ईश्वर का अंश है।

उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बहुत जरूरत है। पश्चिमी सभ्यता के पीछे बेसाख्ता भागते समाज के लिए विवेकानंद के ये विचार पथप्रदर्शक हैं। जब शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा एक युवक (सुशांत राजपूत) और ज्यादा की चाहत में मौत को गले लगा लेता है तब क्या विवेकानंद का उदघोष “उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता” याद नहीं कि या जाना चाहिए।

गुरु रामकृष्ण परमहंस की अप्रतिम सेवा करने वाला,राजयोग, कर्मयोग, वर्तमान भारत ,भक्ति योग जैसी पुस्तकें लिखने वाला, रामकृष्ण मठ का संस्थापक, देशभक्त, स्वतंत्रता-संग्राम का प्रखर समर्थक एक युवा ये सारे काम सिर्फ 39 साल की उम्र में कर गया। विवाह नहीं किया,स्वयं के लिए कुछ नहीं चाहा। इसीलिए उनका जीवन महान है।
शुक्ल यजुर्वेद की मीमांसा लिखते समय उन्होंने कहा था “एक और विवेकानंद चाहिए यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने क्या किया।”

लेकिन हम कहेंगे कि एक और विवेकानंद चाहिए अपनी संस्कृति से भटकते भारत को रास्ता दिखाने के लिए, युवा पीढ़ी में ये आत्मविश्वास भरने के लिए कि जो हमारा अपना है वही सर्वश्रेठ है। हम उसमें सुधार कर सकते हैं उसे बिसरा नहीं सकते।

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