विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार.

काशी शिवोहम… शिवोहम… तो कहता है लेकिन इसको लेकर वह कोई भ्रम नहीं पालता। वो सामने वाले की अन्तः चेतना में भी अपने सदाशिव को देखता है। तभी वो हर किसी को अभिवादन महादेव… महादेव… कह कर करता है। यही वजह है कि काशी का बाशिंदा कोई ईगो नहीं पालता। वो हमेशा मस्त रहता है। अहंकार पालने वालों को आम काशीवासी रत्नेश्वर महोदव का किस्सा सुनाते हैं कि अहंकार के कारण किस तरह से एक भव्य मंदिर धराशायी होकर आज तक गिरा पड़ा है। वैसे यहां एक बात का जिक्र किया जाना जरूरी है कि अहंकार आखिर किस बात का ? हम में से किसी को भी आज तक यह नहीं मालूम कि हम आये कहां से है और हमें जाना कहां है। ऐसे में घमंड काहे का ? काशी का मणिकर्णिका घाट वो जगह है जहां आने के बाद हर शख्स को वैराग्य की अनुभूति होती है। इसे हम श्मशान वैराग्य भी कह सकते हैं। हालांकि यह होता क्षणिक ही है लेकिन यह वो भूमि है जहां राजा और रंक बराबर होते हैं। मणिकर्णिका घाट वो जगह है जहां राजा हरिश्चन्द्र को गुलाम बन कर डोम के हाथों बिकना पड़ा था। पुत्र रोहिताश्व के शव दाह के लिए पहुंची पत्नी से उन्हें टैक्स वसूलना पड़ा था। इसे बेबसी और मजबूरी के नजरिए से नहीं फर्ज अदायगी और दिये गये वचन के अनुपालन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

इसी मणिकर्णिका घाट पर है रत्नेश्वर महादेव का रहस्यमय मंदिर। जानकारी न होने के कारण इसे लोग अलग अलग नामों से पुकारते हैं। कुछ इसे टेेढ़ेश्वर महादेव कहते हैं तो कुछ अज्ञानी काशी में बाहर से आये लोगों को इसे ही काशी करवट बता कर अपना ऊल्लू सीधा करते हैं। जबकि काशी करवट एक अलग मंदिर है और उसका अपना इतिहास है। सचाई ये है कि यह रत्नेश्वर महादेव का मंदिर है। पत्थर पर बेहतरीन पच्चीकारी से बना यह मंदिर स्थापत्य कला का अद्धभुत नमूना है। इस मंदिर के साथ अजीब या अनोखी बात ये है कि यह मंदिर अपनी नींव छोड़कर टेढ़े होकर गंगा में आधा गिर कर डूबा पड़ा है। मंदिर में स्थापित रत्नेश्वर महादेव सामान्य दिनों में गंगा में डूबे हुए ही रहते हैं। बहुत कम ऐसा होता है जब गंगा का जलस्तर काफी नीचे चला जाता है तब शिवलिंग गंगा से उभर कर दिखायी देने लगता है।
बनारस के पुरनिये बताते हैं कि इस मंदिर का निर्माण 15 वीं सदी में किया गया था। उस जमाने में तमाम लोग यहां आकर काशीवास किया करते थे। उनमें राजे रजवाड़ों के लोग भी हुआ करते थे। कहते हैं कि करीब पांच सौ साल पहले की बात है राजा मान सिंह के एक अनाम दरबारी ने अपने मातृऋण को चुकाने के मकसद से गंगा तट के ऊपरी हिस्से में इस मंदिर का निर्माण कराया था। यकीनन मंदिर बना और बहुत शानदार बना। इससे उस दरबारी की चारों तरफ काफी धाक जम गयी। जाहिर है कि अब वो शख्स हमेशा इस घमंड में रहने लगा कि उसने अपनी जन्म दात्री मां का कर्ज उतार दिया। लेकिन अफसोस कि जिस दिन इस मंदिर की प्रतिष्ठापना होनी थी ठीक उसके पहले की रात मंदिर की नींव खिसक गयी और यह खूबसूरत मंदिर टेढ़ा होकर गंगा में आधा डूब कर रह गया। तमाम प्रयासों के बावजूद मंदिर को आज तक फिर सीधा कर खड़ा नहीं किया जा सका। यह कहानी इस बात का प्रतीक भी है कि मां के दूध का कर्ज कभी चुकाया नहीं जा सकता। कहते हैं कि उस दरबारी के अहंकार का ताप इस खूबसूरत मंदिर के विनाश का कारण बना।


मंदिर के निर्माण को लेकर और भी बहुत सारे किस्से और कहानियां हैं। राजस्व विभाग का कहना है कि रत्नेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण 1825 से 1830 के बीच हुआ। पुरातत्व विभाग के अनुसार यह 18वीं शताब्दी में बनकर तैयार हुआ था। काशी के पुराने बाशिंदों का मानना है कि रत्नेश्वर महादेव की स्थापना 15वीं सदी में हुई थी।


मंदिर को लेकर एक और कहानी है। कहते हैं कि इसका निर्माण अहिल्या बाई की दासी ने कराया था। अहिल्या बाई होलकर शहर में मंदिर और कुण्डों निर्माण करा रही थीं। उसी समय महारानी की दासी रत्ना बाई ने भी मणिकर्णिका कुण्ड के समीप शिव मंदिर निर्माण कराने की इच्छा जतायी। इसके लिए उसने अहिल्या बाई से पैसे बतौर ऋण लिये थे। कहते हैं कि अहिल्या बाई मंदिर देख प्रसन्न तो हुईं लेकिन उन्होंने रत्ना बाई से कहा था कि वह इस मंदिर को अपना नाम न दे। दासी ने उनकी बात नहीं मानी और मंदिर का नाम रत्नेश्वर महादेव रखा। इस पर नाराज अहिल्या बाई ने श्राप दिया कि इस मंदिर में बहुत कम ही दर्शन-पूजन हो पाएगा। तभी मंदिर टेढ़ा हो गया और उसके बाद से वह साल में ज्यादातर समय गंगा में डूबा रहता है। बहरहाल काशी को लेकर फोटोग्राफी करने वालों के आकर्षण का केंद्र रहने वाले इस मंदिर में सदियों से साल में करीब चार महीने ही पूजा हो पाती है। बाकी के आठ महीने मां गंगा ही रत्नेश्वर महादेव का जलाभिषेक करती हैं या बाढ़ की मिट्टी गर्भ गृह में पड़ी रहती है।


काशी के कैंट रेलवे स्टेशन से करीब दस किलोमीटर दूर स्थित रत्नेश्वर महादेव मंदिर तक चौक से ब्रह्मनाल और मणिकर्णिका घाट होते हुए पैदल ही पहुंचा जा सकता है। स्टेशन से चौक तक तो सवारी मिल जाएगी लेकिन आगे की यात्रा संकरी गलियों के कारण पैदल ही संभव है।

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