मजबूरी हो गई हैं महंगी शिक्षा

 

 

लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह की कलम से

सरकारों के मन में है कि शिक्षा एक कारोबार है और उससे इनकम होनी चाहिए। इसी कारण प्राथमिक से उच्चशिक्षा तक का तेजी से निजीकरण हुआ और आगे भी होगा। सरकारों ने उसी के साथ शिक्षा बजट को धीरे-धीरे घटा दिया है। इसका सीधा असर संस्थानों के सिस्टम पर पड़ रहा है। साल दर साल फीस बढ़ती जा रही है अभिभावक बच्चों के भविष्य के लिए कर्जों से लदे फंदे सिर धुन रहे हैं। सबसे बड़ी बात एक ही कोर्स की फीस अलग अलग संस्थान में अलग है। किस मद में कितनी फीस ली जा रही है इसको लेकर कोई ट्रांसपरेंसी नहीं है। अभिभावक लुटा पीटा ठगा इसे अपनी नियति समझता है।
संस्थान की एकेडमिक स्थिति क्या है? उसने कितने शोध वर्ल्ड क्लास या नेशन लेवल के कराए? उसके लैब पुस्तकालय उसमें मौजूद किताबों की तादाद आदि पर  चर्चा नहीं होती। एसी लक्जरी हास्टल से क्या एडुकेशन क्वालिटी सुधरेगी?
गार्जियन भी कहते हैं हास्टल अच्छा है लेकिन एडुकेशन क्वालिटी पर खामोश? मानो हास्टल के लिए ही एडमिशन कराया है।

हालांकि बड़े कारपोरेट हाउस शिक्षा के क्षेत्र में उतरे तो लगा कि शिक्षा क्षेत्र में व्यापक बदलाव आएगा लेकिन उन लोगों ने भी इसे एक मुनाफा कमाने का कारोबार मान लिया। सरकार शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए खोल सब्सिडी घटाती चली जा रही है। इससे पुराने सरकारी शैक्षिक संस्थान संकट में आ गए हैं। उनके मुखिया ज्यादा वक्त एकेडमिक कार्य के बजाय इनकम बढ़ाने में दे रहे हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्री रहे प्रकाश जावड़ेकर ने तो कहा कि विश्वविद्यालय अपनी आय के स्त्रोत तलाशें। सवाल है कि विश्वविद्यालय कहां कैसे आय बढ़ाएं। मेरी समझ से विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा धन छात्र और शिक्षक हैं।
उनके शोध और बड़े पदों पर जाकर समाज को दिया जाने वाला योगदान ही संपत्ति है। हां, सरकारें उनके शोध का पेटेंट कराकर औद्योगिक घरानों से अनुबंध कराकर विश्वविद्यालय के लिए एक नियमित बड़ी राशि का इंतजाम कर सकती है।

सरकारों ने निजी क्षेत्र का खिलौना बना दिया शिक्षा को। इसका परिणाम है कि प्रतिभाशाली गरीब बच्चों से शिक्षा दूर होती जा रही है। यही नहीं मध्यमवर्गीय समाज भी भारी-भरकम फीस देने में कराह उठ रहा है।

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