लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह की कलम से

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हां, ये आत्मनिर्भर भारत की दौड़ के सबसे पीछे वाले चक्के की बात कर रहा हूं जिसे प्रवासी मजदूर गरीब अन्त्योदय आदि नाम से पहचान दी गई है। वास्तव में वह पहला चक्का है लेकिन समाज के मजबूत समुदाय ने उसे लगातार पीछे धकेल रखा है लेकिन वह हमेशा बुनियाद की ईंट बना अपने अच्छे दिन की बाट जोह रहा है। इसी में उसकी पीढ़ियां गुजरती चली जा रही है।

जब उसकी मदद की बात आती है सरकार के खजाने में पैसों का टोटा हो जाता है। आज यह पुल सड़क और बहुमंजिली इमारतें उसकी देन है लेकिन उस निर्माण के बाद उसकी कोई पूछ नहीं होती। चमकते दमकते महानगरों को इन्हीं मजदूरों ने बनाया है लेकिन जब इनके सामने मुश्किल आती है तो सरकारें बेशर्मी और निर्लज्जता का परिचय देती है क्योंकि उनमें इस बात की सोच ही नहीं है कि इस देश के संसाधनों पर इनका भी हक बनता है। इन्हें भी वाजिब मदद मिलनी चाहिए।

आप सोच रहे होंगे कि इसके कहने का तात्पर्य क्या है तो मैं बता दूं सरकार ने पिछले दिनों कोरोनावायरस के संकटकाल में बीस लाख करोड़ की भारी भरकम पैकेज की घोषणा की। उसमें अधिकतम हिस्सा लोन की सुविधा देना निकला।

मतलब जो बैंक से लोन लेगा वह भरेगा। हां, डिफाल्टर्स को भी सहूलियत दे उन्हें खुश कर दिया। सिर्फ दो लाख करोड़ का बोझ सरकार पर आएगा ढिंढोरा बीस लाख करोड़ का।  उसमें भी पचास दिन बिना कामकाज के परदेस में कैद मजदूर को घर लाने के लिए सरकार के पैसे नहीं थे मजदूरों से वसूले गए।

मजदूर चंदा लगाकर कर्जे लेकर घर लौटे। एक बड़ी संख्या बिना साधन पैदल ही चल दी। कुछ साइकिल ट्रक बाइक से चल दिए। इन लोगों का कहना था अब खाने के लिए कुछ नहीं रह गया था तो मजबूरी हो गई गांव के लिए निकलना। मतलब खजाने से सरकार पैसे जब तक निकाली तब तक बहुत देर हो गई। यह देरी क्यों हुई?

लाकडाउन के समय उनकी समस्या का आकलन नहीं किया गया। जब घर वापसी का प्लान बना उस समय भी व्यवहारिक पक्ष नहीं देखा गया कि इन चालीस दिन के लाक डाउन में इसकी माली हालत क्या होगी? यह ट्रेन का टिकट खरीद पाएगा कि नहीं? लूटा पीटा मजदूर जब घर लौटा तो सरकार ने उसे राहत के नाम पर मुफ्त अनाज देने की घोषणा की।

यह भी अच्छी बात है कि उनका आधार कार्ड ही राशन कार्ड के रूप में मान्य होगा। लेकिन इसकी मात्रा होगी पांच किलोग्राम चावल और एक किलोग्राम चना। अर्थात एक दिन में 166 ग्राम चावल और 33 ग्राम चना में कम से कम तीन व्यक्ति का परिवार क्या खाएगा। इससे ज्यादा बेहतर डाइट प्लान तो कक्षा पांच तक के बच्चों का है। उसके पीछे सु्प्रीम कोर्ट की निगरानी है वरना वहां भी हाल ऐसा ही रहता।

 इससे साफ है कि वह मजदूर है उन्हें पांच किलोग्राम से अधिक का नहीं समझा गया। काश सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लें तो इन मजदूरों की भी सुनवाई हो जाय। कम से कम इतना चावल गेहूं मिल कि वह भूखों न मरें। सरकार की न जाने क्या सोच है अनाज गोदामों में सड़ जा रहे लेकिन बांटने के वक्त ऐसी कंजूसी की उसकी मात्रा जान शर्म भी शरमा जाय।

इतना घटिया नीति और सोच उस गांधी के देश की है जिसकी सोच थी कि हमारे देश का अंतिम व्यक्ति यदि योजना का लाभ नहीं प्राप्त कर पा रहा है तो सरकार का सारा प्रयास बेकार है। हम सुविधाओं को कुछ लोगों तक सीमित रखें यह उचित नहीं हो सकता। इससे समाज के प्रत्येक नागरिक तक संपन्नता कभी नहीं पहुंच सकती।

गांधी एक स्थान पर कहते हैं कि जहां हिंदुस्तान के गरीब लोगों का विचार नहीं किया जाता, जहां गरीबी को दूर करने के लिए उपाय नहीं किए जाते , वहां राष्ट्रीयता नहीं है। यह बात 6 जून 1929 के नवजीवन में प्रकाशित है। हरिजन बंधु में 1946 में गांधी विधानसभा के बारे में कहते हैं कि इसका काम है लोकमत के अनुसार चलना।

अब अपने मन से सोचिए इन सरकारों की राय में कितना लोकमत छिपा है।

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