मंगल कलश
धार्मिक अनुष्ठानों में कलश या “घट” स्थापित करने की पावन परंपरा प्राचीन है । कलश मांगलिक चिन्ह है। जप या पाठ का अनुष्ठान हो या यज्ञ, हवन, जलपूर्ण घट अवश्य रखा जाता है। शुभ अवसरों पर भी कलश रखे जाते हैं । वनवास के उपरान्त भगवान के अयोध्या आगमन पर पुरवासियों ने सोने के कलश अपने -अपने घरों पर रखे थे।
“कंचन कलश विचित्र संवारे। सबहिं धरे सजि निज निज हारे।”
यही नहीं श्री राम की बरात जनकपुर पहुंचने पर राजा जनक ने जो वस्तुएं स्वागत में भेजीं ,उनमें भरे हुए कलश भी थे ।
“कनक कलश भरि कोपर धारा । भाजन ललित अनेक प्रकारा।”
जलपूर्ण घट स्थापना केपीछे रहस्य सह हैं कि यह पूर्णता का प्रतीक हैं। इसी लिये शकुन या मंगलमय माना जाता है। इसे रखने के पीछे कार्य, अनुष्ठान, आराधना, विशेष के “पूर्ण” और सफलीभूत होने की कामना है या साधक की उस पवित्र कार्य को फलदायी बनाने की प्रबल इच्छा शक्ति का भी मूर्त रूप है। इसके अतिरिक्त जीव की उपमा घट से दी गई है। परमात्मा “घट-घट व्यापी” कहा गया है।
“घट” साधक का शरीर है , कलेवर है, और उसमें भरा जल प्राण है, जीवन है। इसकी स्थापना करके अनुष्ठानकर्ता अपने प्रभु चरणों में निवेदित करता है। घट वह है जो घटित हो चुका है, अर्थात सम्पूर्ण सृष्टिचक्र।
जलमय घट स्थापन अनुष्ठानकर्ता द्वारा विराट के समक्ष यह प्रदर्शन है कि- “जब समग्र सृष्टि ही आपके चरणों में आसीन है तो मेरी क्या हस्ती ।” कलश को पौराणिक ग्रन्थों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश और मातृगव का निवास बताया गया है।
“कण्ठे रुब्रः समभिवतः । मूले तस्य स्थितो ब्रह्ममा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ।। “
घट से ही पवित्रता की मूर्ति जग जननी सीता का अविभार्व हुआ और समुद्र को पी जाने वाले (जल पर पूर्ण अधिकार रखने वाले) अगस्त्य ऋषि भी कलशोत्पन्न है। क्यों न पूज्य हो कलश , क्यों न स्थापित हो घट ! कवियों की कोमल भावनाओं को भी उभारा है शुद्ध द्रवपूर्ण कुंभ ने ।
रीतिकालीन कवियों ने “नीर भरी गगरी ढरकावै “ कहकर लोकरंजन किया है। बाबू जयशंकर प्रसाद ने “लहर” के प्रसिद्ध जागरण गीत ” बीती विभावरी जाग री “ में घट या गगरी को नहीं भुलाया – ” लो यह लतिका भी भर लायी मधु-मुकुल नवल रस-गगरी ।” पूज्य और अर्चनाय है भक्ति और श्रृंगार का संगम मंगल कलश, सुधाजल पूरित पवित्र घट।