डॉ दिलीप अग्निहोत्री

भगवान श्री कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त थे। भारतीय दर्शन में उनकी अपार महिमा का गुणगान किया गया-

अच्युतं केशवं राम नारायणम,
कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिं ।
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं,
जानकीनायकम रामचंद्रं भजे।

प्रभु के अवतारों के शिशु रूप की बड़ी महिमा है। भगवान शिव जी तो इस रूप के दर्शन करने को भेष बदल कर अयोध्या गए थे,जहां प्रभु राम शिशु रूप में लीला कर रहे थे। श्री कृष्ण की लीला तो अति आकर्षक है। भक्त कवियों ने उनके इस रूप का खूब गुणगान किया है। मनुष्य को भी प्रभु के इस रूप का ध्यान करना चाहिए।

शास्त्रों में मनुष्य की सौ सामान्य आयु मानी गई। पहले ऐसा ही था। इसमें पचास वर्ष की आयु के बाद पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ तथा अंतिम पच्चीस वर्ष संन्यास की व्यवस्था थी। संन्यास में व्यक्ति सभी भौतिक सम्पत्ति,साधनों का त्याग करके तपस्या के लिए वन में चला जाता था। आज यह व्यवस्था व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती। ना सौ वर्ष की स्वस्थ आयु रही,ना वन जाकर तपस्या करना संभव रहा। ऐसे में आज व्यक्ति को इक्यावन की अवस्था से ही अपने हृदय को वृंदावन बनाने का प्रयास करना चाहिए। किसी बाहरी वन में जाने की आवश्यकता नहीं है। घर गृहस्थी के त्याग की भी जरूरत नहीं। मन को वृंदावन बनाने का मतलब है कि अध्यात्म की भावभूमि तैयार की जाए,जिसमें भौतिक जगत में रहते हुए भी उसके प्रति अनाशक्त भाव हो। सबके साथ रहते हुए भी मोहमाया के बंधन न हो। ईर्ष्या, द्वेष,निन्दा,छल-कपट आदि से मुक्त हो। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव हो, तो मन में ही वृंदावन निर्मित होने लगेगा। इस भावभूमि में ईश्वर की अनुभूति होगी। कलियुग में सरल हुई है साधना। सतयुग में ईश्वर की आराधना सर्वाधिक कठोर थी। हजारों वर्ष तप करना पड़ता था, अन्न-जल का त्याग करना पड़ता था। किन्तु क्रमश: प्रत्येक युग में साधना सरल होती गई। कलियुग में यह सर्वाधिक सरल है। गोस्वामी जी ने कहा कलियुग केवल नाम अधारा…। अर्थात इसमें ईश्वर का नाम लेना, स्मरण करना,कथा सुनना,स्वाध्याय करना, सत्संग करना आदि ही पर्याफ्त होता है। सन्त अतुल कृष्ण महाराज कहते है कि तप,विशाल यज्ञ आदि आज सबके लिए संभव ही नहीं है। गृहस्थ जीवन में प्रभु के नाम का स्मरण ही भवसागर को पार करा सकता है। सतयुग में हजारों वर्ष की तपस्या कपोल कल्पना मात्र नहीं है। तब व्यक्ति की आयु इतनी हुआ करती थी। वह हजारों वर्ष तप में लगा देता था। मनु शतरूपा ने पच्चीस हजार वर्ष तप किया था।

सतयुग में औसत आयु एक लाख वर्ष,त्रेता में दस हजार वर्ष,द्वापर में एक हजार वर्ष तथा कलियुग के प्रारंभिक चरण में मानव की औसत आयु सौ वर्ष थी। आज मेडिकल साइंस के तमाम प्रयासों के बाद औसत आयु सत्तर वर्ष है। ऐसे में पिछले तीन युगों की भांति तपस्या की ही नहीं जा सकती। फिर भी आज धर्म, अर्थ, काम का पालन करते हुए, मोक्ष की ओर बढ़ा जा सकता है। धर्म के अनुकूल अर्थ का उपार्जन किया जाए, तभी वह शुभ या कल्याणकारी होता है। अधर्म से कमाया गया धन प्रारंभ में बहुत अच्छा लग सकता है, उसकी खूब चकाचौंध नजर आती है,सुख सुविधाओं के अंबार लग जाते हैं, लेकिन बाद में यह अनर्थ साबित होता है। आज व्यक्ति का शरीर भी तप के अनुकूल नहीं रहा। कलियुग के वर्तमान चरण में व्यक्ति की लंबाई मात्र साढ़े तीन हाथ होती है। यहां हाथ से मतलब कोहनी से लेकर मध्यमा अंगुली के ऊपरी छोर तक होता है। प्रत्येक व्यक्ति की लंबाई उसके ही साढ़े तीन हाथ होती है। द्वापर में व्यक्ति साढ़े सात हाथ की लंबाई का होता था, त्रेता में चौदह और सतयुग में अट्ठाइस हाथ लंबाई के मानव होते थे। इस युग गणना में पांच शताब्दी मामूली समय माना जाता है। जीवन यापन का लक्ष्य होना ही मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं होता। आहार तो अन्य जीव भी ग्रहण करते है। मनुष्य के पास विवेक होता है। इस विवेक के बल पर वह इहलोक के साथ अपना परलोक भी सुधार सकता है। प्रत्येक यात्रा का लक्ष्य निर्धारित होता है। ट्रेन,बस,पैदल विमान,या किसी अन्य साधन से यात्रा में लक्ष्य का पहले से पता होता है। जीवन के लक्ष्य में विकल्प नहीं है। पानी की बूंद ढलान की ओर जाएगी, क्योकि उसे समुद्र से मिलना होता है।

इसी प्रकार मनुष्य जीवन का लक्ष्य परमात्मा है। यह लक्ष्य तय हो जाये,तो व्यक्ति उसी के अनुरूप जीवन यापन करेगा। जिनको परमात्मा से मिलना है,वह भक्ति मार्ग पर चलें। मन में अयोध्या व वृंदावन बनाएं। अर्थात प्रभु की भक्ति सच्चे मन से करें। इस लक्ष्य में परिवर्तन संभव ही नहीं। कितने जन्म लगेंगे, यह  व्यक्ति के विवेक से निर्धारित होता है। यह लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। अपने मन को भी स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए। दर्पण साफ न हो तो चेहरा साफ नहीं दिखता है। इसको स्वच्छ रखने की आवश्यकता होती है। दर्पण भी ठीक हो, आंख भी स्वच्छ हो,तब भी इससे केवल भौतिक चेहरा दिखता है। अंतर्मन को देखने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है।  ज्ञान और वैराग्य से विवेक उपजता है। बिनु सत्संग विवेक न होई, आज्ञा चक्र विचारों का केंद्र है। शिव जी का नेत्र इसी का प्रतीक है। श्रीराम मन के दर्पण को स्वच्छ करने की बात कहते है, जिससे गुरु के द्वारा दिये गए ज्ञान को भली प्रकार ग्रहण कर सकते है। भीतर के चेहरे को देखने के लिए न दर्पण चाहिए, न आंखे। यदि परमात्मा को इस जीवन में स्वीकार किया तो वह सखा व चिकित्सक के रूप में मिलते है। इसमें चीकित्सकीय सलाह की भांति अवगुण छोड़ने पड़ते है। काम,मोह आदि को छोड़ना पड़ता है। यदि इस जीवन मे ऐसा नहीं किया तो फिर प्रभु चिकित्सक के रूप में नहीं बल्कि न्यायधीश रूप में मिलते है। वहां कोई सहायक नहीं होता। ऐसा दर्पण होता है जिसमें व्यक्ति के कर्म दिखाई देते है। इसी आधार पर ही निर्णय सुनाया जाता है।

छोटे बच्चे का मन निश्छल होता है। लेकिन इसकी आंखे चंचल होती है। वह खिलौना देख कर मचल जाता है। बड़े होने पर मन चंचल हो जाता है। इस को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। इसमें गुरु सहायक होते है। गुरु मात्र व्यक्ति नहीं है।  ज्ञान  ही गुरु के प्रतीक होते है। दशरथ जी जैसा प्रतापी राजा कोई नहीं है। क्योंकि उनके आंगन में स्वयं प्रभु ने अवतार लिया था। ऐसे दशरथ दर्पण देखते है। उनका अपने सफेद बालों से संवाद होता है। अर्थात उन्हें अपने वृद्ध होने का ज्ञान होता है। लगा कि जीवन बीता जा रहा है। अब शरीर का नहीं, अब इहलोक का नहीं,बल्कि परलोक की चिंता करें। दसरथ ने देखा कि उनकी जय जय कार करने वाले वह है,जो सत्ता से लाभ उठाते रहे है। इनको देख कर भी दशरथ को लगा कि अब उनका पहले जैसा नियंत्रण नहीं रहा। इसलिए उन्हें अपना शासन त्याग देना चाहिए। उम्र बढ़ने पर पहले लोग वन में जाकर तप करते थे। अब वह ऐसा नहीं कर सकते। उन्हें श्री कृष्ण व राम कथा रूपी वन में विचरण करना चाहिए। जिस प्रकार पवन सर्वत्र व्याप्त है,उसी प्रकार पवन पुत्र हनुमान जी की सबको कृपा मिल सकती है। विभीषण जब प्रभु की शरण में आये,तो उनका तत्काल राजतिलक कर दिया। इस प्रकार प्रभु ने यह बताया कि शुभ कार्य में बिलंब नहीं करना चाहिए। यह कार्य प्रभु ने तब किया जब समुद्र पर सेतु ही नहीं बना था। अप्रिय या क्रोध में लिए गए निर्णय को कल के लिए टाल देना चाहिए। प्रभु राम सुग्रीव पर क्रोधित हुए। लेकिन इस निर्णय को इन्होंने कल के लिए टाल दिया था। दशरथ जी ने श्रीराम को युवराज बनाने का निर्णय कल पर टाल दिया था।

देवता जानते थे कि श्रीराम राजा बने तो वह रावण के साथ संधि से बन्ध जाएंगे।क्योकि रावण की सभी सम्राटों से आक्रमण न करने की संधि थी।मंथरा की बुद्धि सरस्वती ने विचलित की। क्योकि जो अयोध्या में जन्मा,जिसने सरयू का जल पिया है,वह श्रीराम का विरोध नहीं करेगा। इसी लिए माता सरस्वती ने मंथरा का चयन किया। वह कैकेई के मायके से अयोध्या आई थी। इसलिए वह आसानी से विचलित हो गईं। लेकिन यह सब भी प्रभु की इच्छा से हो रहा था।

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