आजकल रामायण में शूद्र के ज़िक्र को लेकर मनीषियों का दर्द उफान पर है। विशेषकर राजनीति के व्यवसाय से जुड़े ये कतिपय नेता और बुद्धिजीवी अपनी भड़ास को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं।
तो आगे बढ़ने से पहले एक परिचय इन मनीषियों का।
ये वे लोग हैं जिनका आधा समय राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों और नेताओं के घरों का चक्कर लगाने में बीतता है कि टिकट और कुर्सी का जुगाड़ दुरुस्त रहे और आधा समय बिरादरी को सहेजने में बीतता है कि दुकान चलती रहे और बिरादरी में दूसरा प्रतिद्वंद्वी न पैदा हो जाय।
शोध का विषय यह है कि राजनीति के इन व्यवसायियों को रामायण जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन- मनन करने का अवसर कब मिलता है?
अब आते हैं मूल विषय पर-
शूद्र कौन
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इन नेताओं को अगर नाराजगी है तो इन्हें पहले महर्षि बाल्मीकि का पुतला जलाना चाहिए जिन्होंने मूल रामायण लिखी थी। महर्षि बाल्मीकि शूद्र थे जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है।
वैदिक काल और प्राचीन भारत में शूद्र कोई जाति नहीं थी। सिर्फ क्षत्रिय, ब्राह्मण थे और इसके अतिरिक्त शेष सभी वैश्य थे।आज की सारी जातियां इन्हीं जातियों से निकली हैं।
उस समय थाना- पुलिस नाम की चीज तो थी नहीं इसलिए समाज में कोई अपराध करता था तो उसे शूद्र घोषित करके समाज से बहिष्कृत करके गांव से निकाल दिया जाता था और वह जंगलों में या और कहीं जीवन बिताता था।
महर्षि बाल्मीकि ने स्वयं लिखा है कि वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे किन्तु उनसे कुछ अपराध हुआ और उन्हें शूद्र घोषित करके समाज से निष्कासित कर दिया गया। इसी शूद्र बाल्मीकि ने रामायण की रचना की।
यहां यह भी बताते चलें कि शूद्र वन्शानुगत नहीं होते थे।यानी अपराध करने पर वह व्यक्ति ही शूद्र घोषित किया जाता था, पूरा परिवार नहीं। ऋग्वेद में वर्णित है
कि किसी शूद्र का अंतिम संस्कार मत करो, भले ही वह तुम्हारा पिता ही क्यों न हो। यानी शूद्र पिता का पुत्र शूद्र नहीं था।
धीरे-धीरे जैसे व्यवसाय के कारण तमाम जातियां बनी, वैसे ही शूद्र जाति का भी निर्माण हो गया लेकिन तब भी वे अछूत नहीं थे। डॉ.अंबेडकर लिखते हैं कि आठवीं, नौवीं शताब्दी (मुस्लिम आगमन) के पूर्व भारत में छुआछूत नहीं था ।हां, कुछ व्यवसाय ऐसे थे जिसे लोग त्याज्य और अशुद्ध मानते थे और उससे दूरी बनाकर रखते थे। जैसे चमड़े का काम या मैला ढोने
का काम आदि।
आजकल के ये राजनैतिक व्यवसायी जो शूद्रों के नाम पर चीत्कार कर रहे हैं, अगर इनका भी इतिहास निकाला जाय तो ये भी उसी उच्च बिरादरी के निकलेंगे। करीब 2हजार वर्ष पूर्व के आसपास राजपूतों का जो वर्ग कृषि कार्य में लग गया, वह कुर्मि क्षत्रिय कहलाया। फिर इस वर्ग में जो वर्ग अन्न उगाता रहा, वह कुर्मि छत्रिय ही रहा और इससे अलग जो वर्ग सब्जी उगाने लगा, वह कोइरी हो गया। इसी तरह मुस्लिम सेनाओं से परास्त जिन राजपूत सैनिकों ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया, उनसे मैला उठवाने का काम लिया जाने लगा। वे ही बाल्मीकि हो गए यानी व्यवसाय के कारण अछूत हो गए।
तात्पर्य यह कि हर युग की अपनी व्यवस्था, परंपरा और मान्यताएं होती हैं और इससे मिलती-जुलती व्यवस्था प्रायः सारी दुनिया में थी। इसी प्रकार की यंत्रणा महिलाओं ने भी झेली है। सारी दुनिया में महिलाओं ने भी आज की स्थिति में पहुंचने के लिए बड़ी लंबी और यंत्रणापूर्ण लड़ाई लड़ी है।
बाल्मीकि या तुलसीदास ने जो भी लिखा है, वह उस समय की व्यवस्था रही होगी तो उनकी किताबों पर प्रतिबंध लगाने से क्या इतिहास बदल जाएगा?
निश्चय ही विषय गंभीर है लेकिन रोचक भी है। रोचक इसलिए कि वेद, गीता, रामायण तो बहुत दूर- ये नेता जब कभी चुने जाते होंगे तो संविधान की कसम भी खाते होंगे और इन विद्वानों में शायद ही कोई यह बता पाए कि भारत के संविधान में अब तक कितने संशोधन हो चुके हैं।